श्री हनुमान चालीसा के दोहे में छिपा है जीवन रहस्य, जाने भावार्थ▪️पंडित अनिल पाण्डेय
श्री हनुमान चालीसा के दोहे में छिपा है जीवन रहस्य, जाने भावार्थ
▪️पंडित अनिल पाण्डेय
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हरेक मंगलवार / शनिवार को पढ़ेंगे श्री हनुमान चालीसा के दोहों का भावार्थ
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💥 हमारे हनुमान जी 💥
तीनबत्ती न्यूज
संकट तें हनुमान छुड़ावै |
मन क्रम बचन ध्यान जो लावै ||
सब पर राम तपस्वी राजा |
तिन के काज सकल तुम साजा ||
अर्थ – जो भी मन क्रम और वचन से हनुमान जी का ध्यान करता है वो संकटों से बच जाता है।
जो राम स्वयं भगवान हैं उनके भी समस्त कार्यों का संपादन आपके ही द्वारा किया गया।
भावार्थ:-श्री हनुमान जी से संकट के समय में मदद लेने के लिए आवश्यक है कि आपका मन निर्मल हो । आप जो मन में सोचते हों , वही वाणी से बोलते हैं और वही कर्म करते हैं तब आप निश्चल कहे जाओगे और संकट के समय हनुमान जी आपकी मदद करेंगे ।
श्री रामचंद्र वन में हैं परंतु अयोध्या के राजा भी हैं । वन के सभी लोग उनको राजा ही मानते हैं इसलिए वे तपस्वी राजा हैं । वे एक ऐसे राजा है जो सभी के ऊपर हैं । तपस्वी राजा के समस्त कार्य जैसे सीता मां का पता करना लक्ष्मण जी के मूर्छित होने पर संजीवनी बूटी को लाना अहिरावण द्वारा अपहरण किए जाने पर सबको मुक्त कराकर लाना आदि को आपने संपन्न किया है ।
संदेश- स्थिति कैसी भी हो मन के भाव, कर्म का साथ और वचन को टूटने न दें। यदि आप ऐसा करते हैं तो हर काम में आपको सफलता जरूर मिलेगी और श्री हनुमान जी का आशीर्वाद भी मिलेगा।
इन चौपाइयों का बार बार पाठ करने से होने वाला लाभ:-
1-संकट तें हनुमान छुड़ावै | मन क्रम बचन ध्यान जो लावै ||
इस चौपाई का बार बार पाठ करने से जातक सभी प्रकार के संकटों से मुक्त रहता है ।
2-सब पर राम तपस्वी राजा | तिन के काज सकल तुम साजा ||
राजकीय कार्यों मे सफलता के लिए इस चौपाई का बार-बार पाठ करना चाहिए।
विवेचना:-
सबसे पहले हम संकट शब्द पर विचार करते हैं शब्दकोश के अनुसार संकट शब्द का अर्थ होता है विपत्ति या खतरा । विपत्ति आपके दुर्भाग्य के कारण हो सकती है । सामूहिक विपत्ति प्रकृति द्वारा दी जा सकती है । खतरा एक मानसिक दशा है क्योंकि आपके मस्तिष्क द्वारा महसूस किया जाता है । जैसे कि आप रात में सुनसान रास्ते पर जाने पर चोरों या डकैतों का खतरा महसूस कर सकते हैं ।
संकट का एक अर्थ होता है मुश्किल या कठिन समय । संकट शब्द का तात्पर्य है मुसीबत। संकट एक कष्टकारी स्थिती है जिसकी आशा नही की जाती और जिसका निदान पीड़ा (शारिरिक, मानसिक, आर्थिक, अथवा सामाजिक) से मुक्ती के लिये अनिवार्य है। संकट का एक उदाहरण है यूक्रेन के लोग इस समय भारी संकट में है। दूसरा महत्वपूर्ण वाक्यांश मन क्रम वचन है।
रामचरितमानस के उत्तरकांड में लिखा हुआ है :-
मन क्रम बचन जनित अघ जाई। सुनहिं जे कथा श्रवन मन लाई॥
तीर्थाटन साधन समुदाई। जोग बिराग ग्यान निपुनाई॥
अर्थ :- जो कान और मन लगाकर इस कथा को सुनते हैं, उनके मन, वचन और कर्म (शरीर) से उत्पन्न सब पाप नष्ट हो जाते हैं। तीर्थ यात्रा आदि बहुत से साधन, उपलब्ध हो जाते हैं । ऐसे लोगों को योग, वैराग्य और ज्ञान में निपुणता अपने आप प्राप्त हो जाती है ।
मन क्रम वचन का दूसरा उदाहरण भी रामचरितमानस से ही है :-
मन क्रम बचन कपट तजि जो कर भूसुर सेव।
मोहि समेत बिरंचि सिव बस ताकें सब देव॥33॥
भावार्थ :- मन, वचन और कर्म से और कपट छोड़कर जो भूदेव ब्राह्मणों की सेवा करता है, मुझ समेत ब्रह्मा, शिव आदि सब देवता उसके वश में हो जाते हैं॥
इस प्रकार स्पष्ट है कि मन क्रम वचन का अर्थ पूरी तन्मयता और एकाग्रता से कोई कार्य करना है । किसी कार्य को करते समय बाकी पूरे संसार को भूल जाना ही मन क्रम वचन से कार्य करना कहलाता है। इस प्रकार इस चौपाई में तुलसीदास जी कहना चाहते हैं कि आप सभी विपत्तियों से और सभी खतरों से बच सकते हो अगर आप हनुमान जी में अपना दिल पूरी एकाग्रता के साथ लगाएं । उनका जाप करते समय आपको बाकी सब कुछ भूल जाना चाहिए । आपका ध्यान सिर्फ और सिर्फ हनुमान जी पर ही हो । ईश्वर की भक्ति 2 तरह से की जाती है । एक अंतर्भक्ति और दूसरा बहिर्भक्ति । चित्त एकाग्र कर हनुमान जी की मूर्ति के सामने बैठकर , या बगैर मूर्ति के बैठ कर जब हम हनुमान जी को याद करते हैं तो अंतर्भक्ति कहलाती है। इस समय आप जो जाप करते हैं उसमें आवाज आपके अंतर्मन की होती है । बहिर्भक्ति का अर्थ यह है कि आप मूर्ति के सामने बैठे हुए हैं । शांत दिख रहे हैं और यह भी बाहर से समझ में आ रहा है कि आपका ध्यान इस समय जप में ही है ।
इस चौपाई में अगला महत्वपूर्ण शब्द है "ध्यान" । ध्यान शब्द का अर्थ होता है एक ऐसी क्रिया जिसमें मन कर्म और वाणी तीनों ही एकाग्र होकर किसी बिंदु विशेष पर केंद्रित हो जाए । ध्यान दो प्रकार का होता है पहला योगिक ध्यान और दूसरा धार्मिक ध्यान । योगिक ध्यान का उदाहरण है योगियों द्वारा या योग क्रियाओं के समय किया जाने वाला ध्यान। इस प्रकार के ध्यान को महर्षि पतंजलि के योग सूत्र में विशेष रूप से बताया गया है । इसमें चित्त को एकाग्र करके किसी वस्तु विशेष पर केंद्रित किया जाता है । पुराने समय में विशेष रुप से ऋषि गण भगवान का ध्यान करते थे । ध्यान की अवस्था में ध्यान मग्न व्यक्ति अपने आसपास के वातावरण को और स्वयं को भी भूल जाता है । ध्यान करने से आत्मिक और मानसिक शक्तियों का विकास होता है । अगर कोई व्यक्ति ध्यान मग्न अवस्था में है तो उसे आसपास के वातावरण में होने वाले किसी भी प्रकार के परिवर्तन का असर महसूस नहीं होता है।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि अगर आप पूर्णतया ध्यान मग्न होकर हनुमान जी को बुलाते हैं तो आपके हर संकट को महावीर हनुमान जी दूर करेंगे । यह बात केवल हनुमान जी के लिए नहीं है । यह बात समस्त महान उर्जा स्रोतो के लिए है जैसे कि अगर आप देवी जी की भक्त हैं और देवी जी को ध्यान मग्न होकर बुलाएंगे तो वह अवश्य आकर आपके संकटों को दूर करेंगी ।
धार्मिक ध्यान का संदर्भ विशेष रुप से बौद्ध धर्म से है । बौद्ध धर्म गुरुओं द्वारा इसे एक विशेष तकनीक द्वारा विकसित किया गया था । बौद्ध मठ के नियम यह कहते हैं इंद्रियों को वश में किया जाए और मस्तिष्क के अंदर घुस कर आंतरिक ध्यान लगाया जाए । हम ऐसा भगवान चाहते हैं जो कि देखता और सुनता हो । जो हमारी परवाह करें । बौद्ध धर्म में भी बोधिसत्व का सिद्धांत कार्य करता है । बौद्ध धर्म में भगवान बुद्ध स्वयं को और दूसरों को आंखें बंद करके मस्तिष्क को सत्य पर केंद्रित करके ध्यान करना सिखाते हैं । जबकि बोधिसत्व स्वयं की आंख और कान खुले रखते हैं और लोगों को मदद देने के लिए अपने हाथों को आगे बढ़ाते हैं । इस कारण जनमानस शिक्षक बुद्ध के बजाय रक्षक बोधिसत्व पर ज्यादा ध्यान केंद्रित करता है ।
हिंदू धर्म में हनुमान एक ऐसा स्वरूप बन गए हैं जिनके द्वारा एक परेशान भक्त उम्मीद और ताकत को वापस पा सकता है । हनुमान जी की आराधना करना उनका ध्यान लगाना भक्तों के अंदर शक्ति प्रदान करता है । विपत्ति और संकटों से लड़ने की शक्ति यहीं पर प्रारंभ होती है । ध्यान लगाकर हनुमान जी को बुलाने से हनुमान जी द्वारा सभी संकटों का हरण कर लिया जाता है।
अगली पंक्ति है:-
"सब पर राम तपस्वी राजा, तिन के काज सकल तुम साजा" ।
इसमें महत्वपूर्ण शब्द है श्रीराम , तपस्वी , राजा , तिनके काज और साजा ।
सबसे पहले हम तपस्वी शब्द पर ध्यान देते हैं ।
तपस्या करने वाले को तपस्वी कहते हैं । अब प्रश्न उठता है कि तपस्या क्या है । तपस् या तप का मूल अर्थ है प्रकाश अथवा प्रज्वलन जो सूर्य या अग्नि में स्पष्ट होता है। किंतु धीरे-धीरे उसका एक रूढ़ार्थ विकसित हो गया । किसी उद्देश्य विशेष की प्राप्ति अथवा आत्मिक और शारीरिक अनुशासन के लिए उठाए जानेवाले दैहिक कष्ट को तप कहा जाने लगा। वर्तमान में हम तपस्या के इसी स्वरूप को मानते हैं । वर्तमान में तपस्या का यही स्वरूप है । साधारण तपस्वी जमीन पर सोता है ,पीले रंग के कपड़े पहनता हैं ,कम खाना खाता है ,सर पर जटा जूट धारण करता है ,नाखून नहीं काटता है ,। साधारण तपस्वी को वेद पाठी और दयालु भी होना चाहिए ।
उग्र तपस्वी को ग्रीष्म ऋतु में पंचाग्नि, बरसात की रात में आसमान के नीचे रहना, जाड़े में जल निवास , तीन समय स्नान , कंदमूल खाना भिक्षाटन , बस्ती से दूर निवास तथा समस्त प्रकार के सुखों को त्याग करना पड़ता है ।
तीसरे हठयोगी होते हैं । जो कि उग्र तपस्वी की सभी क्रियाओं को करते हैं । उसके अलावा कोई एक विशेष मुद्रा में जैसे हाथ को उठाए रखना या एक पैर पर खड़े रहना आदि क्रिया भी करते हैं ।
मनुस्मृति कहता है की आपका कर्म ही आपकी तपस्या है । जैसे कि अगर आपका कार्य पढ़ना है तो पढ़ना ही आपके लिए तपस्या है । अगर आप सैनिक हैं तो शत्रुओं से देश की रक्षा करना आपके लिए तपस्या है ।
भगवत गीता के अनुसार :-श्रीमद् भागवत गीता में तपस्या के बारे में बहुत अच्छी विवेचना उसके 17 अध्याय में श्लोक क्रमांक 14 से 22 तक किया गया है । इसमें उन्होंने तप के कई प्रकार बताए हैं । श्रीमद् भगवत गीता के अनुसार निष्काम कर्म ही सबसे बड़ा तप है ।
देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते৷৷17.14৷৷
भावार्थ : देवता, ब्राह्मण, गुरु (यहाँ 'गुरु' शब्द से माता, पिता, आचार्य और वृद्ध एवं अपने से जो किसी प्रकार भी बड़े हों, उन सबको समझना चाहिए।) और ज्ञानीजनों का पूजन, पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा- यह शरीर- सम्बन्धी तप कहा जाता है ৷৷17.14॥
श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः।
अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते৷৷17.17৷৷
भावार्थ : फल को न चाहने वाले योगी पुरुषों द्वारा परम श्रद्धा से किए हुए उस पूर्वोक्त तीन प्रकार के तप को सात्त्विक कहते हैं ৷৷17.17॥
श्री रामचंद्र जी वन में हैं । एक स्थान पर दूसरे स्थान पर भ्रमण कर रहे हैं । सन्यासी का वस्त्र पहने हुए हैं तथा अपने पिताजी द्वारा दिए गए आदेश का पालन कर रहे हैं । संतो की रक्षा कर रहे हैं तथा उन्हें आवश्यक सुविधाएं भी प्रदान कर रहे हैं । इस प्रकार श्री रामचंद्र जी वन में तपस्वी का सभी कार्य कर रहे हैं । श्री रामचंद्र राजतिलक के तत्काल पहले राज्य छोड़ कर के वन को चल दिए । परंतु उनके बाद भरत जी ने अपना राजतिलक नहीं करवाया । श्री भरत जी ने भी पूर्ण तपस्वी का आचरण किया । वल्कल वस्त्र पहने ,जटा जूट बढ़ाया आदि आदि । श्री भरत जी ने रामचंद्र जी के खड़ाऊ को रख कर के अयोध्या के शासन को संचालित किया । इस प्रकार अगर तकनीकी रूप से कहा जाए तो अयोध्या के राजा उस समय भी श्री रामचंद्र जी ही थे । अतः तुलसीदास जी ने उनको तपस्वी राजा कहा है ।
रामचंद्र जी भगवान विष्णु के अवतार थे । भगवान विष्णु का स्थान देव त्रयी मैं सबसे ऊपर है ।इसलिए श्री रामचंद्र जी सब के ऊपर हैं । अतः यह कहना कि सब पर राम तपस्वी राजा पूर्णतया उचित है ।
जो सबसे ऊपर है, सबसे शक्तिमान है और सबसे ऊर्जावान है उन श्री राम जी का कार्य हनुमान जी ने किया है । अगर हम रामायण को पढ़ें तो पाते हैं कि श्री हनुमान जी ने श्री रामचंद्र जी के अधिकांश कार्यों को संपन्न किया है । जैसे सीता माता का पता लगाना , सुषेण वैद्य को लाना ,जब श्री लक्ष्मण जी को शक्ति लग गई तो श्री लक्ष्मण जी को मेघनाथ से बचाकर शिविर में लाना , संजीवनी बूटी लाना , गरुड़ जी को लाना , अहिरावण का वध करना और अहिरावण के यहां से श्री रामचंद्र जी और श्री लक्ष्मण जी को बचाकर लाना आदि आदि । इस प्रकार आसानी से कहा जा सकता है कि श्री हनुमान जी ने श्री रामचंद्र जी के सभी कार्यों को संपन्न किया है । श्री रामचंद्र जी ने जो भी आदेश दिए हैं उनको श्री हनुमान जी ने पूर्ण किया है ।
इस प्रकार हनुमान जी ने तपस्वी राजा श्री रामचंद्र जी के समस्त कार्यों को संपन्न करके श्री रामचंद्र जी को प्रसन्न किया ।
और मनोरथ जो कोई लावै |
सोई अमित जीवन फल पावै ||
चारों जुग परताप तुम्हारा |
है परसिद्ध जगत उजियारा ||
अर्थ :–
हे हनुमान जी आप भक्तों के सभी प्रकार के मनोरथ को पूर्ण करते हैं । जिस पर आपकी कृपा हो, वह कोई भी अभिलाषा करें तो उसे ऐसा फल मिलता है जिसकी जीवन में कोई सीमा नहीं होती।
हे हनुमान जी, आपके नाम का प्रताप चारो युगों फैला हुआ है । जगत में आपकी कीर्ति सर्वत्र प्रकाशमान है।
भावार्थ:-
मनोरथ का अर्थ होता है "मन की इच्छा" । यह अच्छी और बुरी दोनों प्रकार की हो सकती है । अगर हम हनुमान जी के पास , मन के अच्छे इच्छाओं को लेकर जाएंगे तो कहा जाएगा कि हम अच्छे मनोरथ से हनुमान जी से कुछ मांग रहे हैं । हनुमान जी हमारी इन इच्छाओं की पूर्ति कर देते हैं ।
चारों युग अर्थात सतयुग त्रेता युग द्वापर युग और कलयुग में परम वीर हनुमान जी का प्रताप फैला हुआ है । हनुमान जी का प्रताप से हर तरफ उजाला हो रहा है । उनकी कीर्ति पूरे विश्व में फैली हुई है।
संदेश-
हनुमान जी से अगर हम सच्चे मन से प्रार्थना करते हैं वह प्रार्थना अवश्य पूरी होती है ।
इन चौपाइयों के बार-बार पाठ करने से होने वाला लाभ:-
1-और मनोरथ जो कोई लावै | सोई अमित जीवन फल पावै ||
2- चारों जुग परताप तुम्हारा | है परसिद्ध जगत उजियारा ||
इन चौपाईयों के बार-बार पाठ करने से जातक के सभी मनोरथ सिद्ध होंगे और उसकी कीर्ति हर तरफ फैलेगी ।
विवेचना:-
ऊपर हमने पहली और दूसरी लाइन का सीधा-साधा अर्थ बताया है । मनोरथ का अर्थ होता है इच्छा । परंतु किस की इच्छा । मनोरथ का अर्थ केवल मन की इच्छा नहीं है । अगर हम मनोरथ को परिभाषित करना चाहें तो हम कह सकते हैं की "मन के संकल्प" को मनोरथ कहते हैं । हमारा संकल्प क्योंकि मन के अंदर से निकलता है अतः इसमें किसी प्रकार का रंज और द्वेष नहीं होता है । हमारी इच्छा हो सकती है कि हम अपने दुश्मन का विध्वंस कर दें । भले ही वह सही रास्ते पर हो और हम गलत रास्ते पर हों । परंतु जब हम संकल्प लेंगे और वह संकल्प हमारे दिल के अंदर से निकलेगा तो हम इस तरह की गलत इच्छा हनुमान जी के समक्ष नहीं रख पाएंगे । हनुमान जी के समक्ष इस तरह की इच्छा रखते ही हमारी जबान लड़खड़ा जाएगी । दुश्मन अगर सही रास्ते पर है तो फिर हम यही कह पाएंगे कि हे बजरंगबली इस दुश्मन से हमारी संधि करा दो । हमें सही मार्ग पर लाओ । हमें कुमार्ग से हटाओ । इस संत-इच्छा पूरी हो इसके लिए हमें हनुमान जी से मन क्रम वचन से ध्यान लगाकर मांग करनी होगी । ऐसा नहीं है कि आप चले जा रहे हैं और आपने हनुमान जी से कहा कि मेरी इच्छा पूरी कर दो और हनुमान जी तत्काल दौड कर आपकी इच्छा को पूरी कर देंगे । इसीलिए इसके पहले की चौपाई में तुलसीदास जी कह चुके हैं "मन क्रम वचन ध्यान जो लावे" । हनुमान जी से कोई मांग करने के पहले आपको उस मांग के बारे में मन में संकल्प करना होगा। संकल्प करने के कारण आपकी मांग आपके मस्तिष्क से ना निकालकर हृदय से निकलेगी । आपके मन से निकलेगी। आदमी के अंदर का मस्तिष्क ही उसके सभी बुराइयों का जड़ है । मानवगत बुराइयां मस्तिष्क के अंदर से बाहर आती हैं। आप जो चाहते हो कि पूरी दुनिया का धन आपको मिल जाए यह आपका मस्तिष्क सोचता है ,दिल नहीं । दिल तो खाली यह चाहता है कि आप स्वस्थ रहें । आपको समय समय पर भोजन मिले । भले ही इस भोजन के लिए आपको कितना ही कठोर परिश्रम करना पड़े ।
मनुष्य के मन का मनुष्य के जीवन चक्र में बहुत बड़ा स्थान है । मैं एक बहुत छोटा उदाहरण आपको बता रहा हूं । मैं अपने पौत्र को जमीन से उठा रहा था । इतने में मेरे घुटने में कट की आवाज हुई और मेरी स्थिति खड़े होने लायक नहीं रह गई । मैंने सोचा कि मेरे घुटने की कटोरी में कुछ टूट गया है और मैं काफी परेशान हो गया । हनुमान जी का नाम बार-बार दिमाग में आ रहा था । मेरा लड़का मुझे लेकर डॉक्टर के पास गया । डॉक्टर ने मुझे देखने के बाद एक्सरे कराने के लिए कहा एक्सरे कराने के उपरांत रिजल्ट देखकर डॉक्टर ने कहा कि नहीं कोई भी हड्डी टूटी नहीं है । लिगामेंट टूटे होंगे । यह सुनने के बाद मन के ऊपर जो एक कर डर बैठ गया था वह समाप्त हो गया । और मैं लड़के का सहारा लेकर चलकर अपनी गाड़ी तक गया । यह मन के अंदर के डर के समाप्त होने का असर था जिसके कारण डॉक्टर को दिखाने के बाद मैं पैदल चल कर गाड़ी तक पहुंचा । एक दूसरा उदाहरण भी लेते हैं । एक दिन में अपने मित्र के नर्सिंग होम में बैठा हुआ था । कुछ लोग एक वृद्ध को स्ट्रेचर पर रखकर के मेरे मित्र के पास तक आए । उन्होंने बताया कि इनको हार्ट में पेन हो रहा है । मेरे मित्र द्वारा जांच की गई तथा फिर ईसीजी लिया गया । इसीजी देखने के उपरांत मेरे मित्र ने पुनः पूछा कि क्या आपको दर्द हो रहा है ? बुजुर्ग महोदय ने कहा हां अभी भी उतना ही दर्द है । मेरे मित्र को यह पुष्टि हो गई कि यह दर्द हृदय रोग का ना हो करके गैस का दर्द है ।जब हमारे मित्र ने यह बात बुजुर्ग वार को बताई तो उसके उपरांत वे बगैर स्ट्रेचर के चलकर अपनी गाड़ी तक गए। यह मन का आत्म बल ही था जिसके कारण वह बुजुर्ग व्यक्ति अपने पैरों पर चलकर गाड़ी तक पहुंचे । एक बार मन भयभीत हो गया कि हमारी सम्पूर्ण शारीरिक शक्ति व्यर्थ हो जाती है । इसलिए मन का शरीर में असाधारण स्थान है । ऐसा होनेपर भी, भौतिक जीवन जीनेवाले लोग मन की ओर उपेक्षा की दृष्टि से देखते हैं । अपने मस्तिष्क को श्रेष्ठ मानते हैं । शरीर के अंदर यह मन क्या है ? यह आपकी आत्मा है और आत्मा शरीर में कहां निवास करती है यह किसी को नहीं मालूम । आत्मा कभी गलत निर्णय नहीं करती । मन कभी गलत निर्णय नहीं करता । मन के द्वारा किया गया निर्णय हमेशा सही और उपयुक्त होता है । गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में लिखा है कि :-
काम, क्रोध, मद, लोभ, सब, नाथ नरक के पंथ।
सब परिहरि रघुबीरहि, भजहुँ भजहिं जेहि संत।
विभीषणजी रावण को पाप के रास्ते पर आगे बढने से रोकने के लिए समझाते हैं कि काम, क्रोध, अहंकार, लोभ आदि नरक के रास्ते पर ले जाने वाले हैं। काम के वश होकर आपने जो देवी सीता का हरण किया है और आपको जो बल का अहंकार हो रहा है, वह आपके विनाश का रास्ता है। जिस प्रकार साधु लोग सब कुछ त्यागकर भगवान का नाम जपते हैं आप भी राम के हो जाएं। मनुष्य को भी इस लोक में और परलोक में सुख, शांति और उन्नति के लिए इन पाप की ओर ले जाने वाले तत्वों से बचना चाहिए।
इस प्रकार तुलसीदास जी विभीषण के मुख से रावण को रावण की आत्मा या रावण के मन की बात को स्वीकार करने के लिए कहते हैं ।
रामचरितमानस में तुलसीदास जी यह भी बताते हैं कि संत के अंदर क्या-क्या चीजें नहीं होना चाहिए । इसका अर्थ यह भी है क्या-क्या चीजें आपके मस्तिष्क के अंदर अगर नहीं है तो यह निश्चित हो जाता है कि आप मन की बात सुनते हो ।
विभीषणजी रावण को पाप के रास्ते पर आगे बढ़ने से रोकने के लिए समझाते हैं कि काम, क्रोध, अहंकार, लोभ आदि नरक के रास्ते पर ले जाने वाले हैं। काम के वश होकर आपने (रावण) जो देवी सीता का हरण किया है और आपको जो बल का अहंकार हो रहा है, वह आपके विनाश का रास्ता है। जिस प्रकार साधु लोग सब कुछ त्यागकर भगवान का नाम जपते हैं उसी प्रकार आप भी दुर्गुणों को छोड़कर राम के हो जाएं। मनुष्य को इस लोक और परलोक में सुख, शांति और उन्नति के लिए इन पाप की ओर ले जाने वाले तत्वों से बचना चाहिए।
ऊपर की सभी बातों से स्पष्ट है कि अगर आप काम क्रोध मद लोभ आदि मस्तिष्क के विकारों से दूर होकर के मन से संकल्प लेंगे और हनुमान जी को एकाग्र ( मन क्रम वचन से ) होकर याद कर उनसे मांगेंगे तो आपको निश्चित रूप से जीवन फल प्राप्त होगा । परंतु यह जीवन फल क्या है । इसको गोस्वामी तुलसीदास जी ने कवितावली में स्पष्ट किया है।:-
सियराम सरूप अगाध अनूप, विलोचन मीनन को जलु है।
श्रुति रामकथा, मुख राम को नामु, हिये पुनि रामहिं को थलु है।।
मति रामहिं सो, गति रामहिं सो, रति राम सों रामहिं को बलु है।
सबकी न कहै, तुलसी के मते,इतनो जग जीवन को फलु है।।
अर्थात राम में पूरी तरह से रम जाना अमित जीवन फल है । परंतु यह गोस्वामी जी जैसे संतों के लिए है । जनसाधारण का संकल्प कुछ और भी हो सकता है । आप की मांग भी निश्चित रूप से पूर्ण होगी । आपको किसी और दरवाजे पर जाने की कोई आवश्यकता नहीं है । एक और बात में पुनः स्पष्ट कर दूं कि यहां पर हनुमान जी शब्द से आशय केवल हनुमान जी से नहीं है वरन सभी ऊर्जा स्रोतों जैसे मां दुर्गा और उनके नौ रूप या कोई भी अन्य देवी देवता या रामचंद्र जी कृष्ण जी आदि से है ।
एक तर्क यह भी है कि अपने मन की बातों को हनुमान जी से कहने की कोई आवश्यकता नहीं है । वे तो सर्वज्ञ हैं । उनको हमारे बारे में सब कुछ मालूम है । वे जानते हैं कि हमारे लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा है। अकबर बीरबल की एक प्रसिद्ध कहानी है जिसमें एक बार अकबर को की उंगली कट गई सभी दरबारियों ने इस पर अफसोस जताया परंतु बीरबल ने कहा चलिए बहुत अच्छा हुआ ज्यादा उंगली नहीं कटी । अकबर इस पर काफी नाराज हुआ और बीरबल को 2 महीने की जेल का हुक्म दे दिया । कुछ दिन बाद अकबर जंगल में शिकार खेलने गए ।शिकार खेलते खेलते वे अकेले पड़ गए । आदिवासियों के झुंड ने उनको पकड़ लिया । ये आदिवासी बलि चढ़ाने के लिए किसी मनुष्य को ढूंढ रहे थे । अकबर को बलि के स्थान पर लाया गया । बलि देने की तैयारी पूर्ण कर ली गई । अंत में आदिवासियों का ओझा आया और उसने अकबर का पूरा निरीक्षण किया । निरीक्षण के उपरांत उसने पाया कि अकबर की उंगली कटी हुई है । इस पर ओझा ने कहा कि इस मानव की बलि पहले ही कोई ले चुका है । अतः अब इसकी बलि दोबारा नहीं दी जा सकती है । फिर अकबर को छोड़ दिया गया । राजमहल में आते ही अकबर बीरबल के पास गए और बीरबल से कहा कि तुमने सही कहा था ।अगर यह उंगली कटी नहीं होती जो आज मैं मार डाला जाता ।
भगवान को यह भी मालूम है कि हमारे साथ आगे क्या क्या होने वाला है । अगर हम एकाग्र होकर हनुमान जी का केवल ध्यान करते हैं तो वे हमारे लिए वह सब कुछ करेंगे जो हमारे आगे की भविष्य के लिए हितवर्धक हो । उदाहरण के रूप में एक लड़का पढ़ने में अच्छा था । डॉक्टर बनना चाहता था । पीएमटी का टेस्ट दिया जिसमें वह सफल नहीं हो सका । वह लड़का हनुमान जी का भक्त भी था और उसने हनुमान जी के लिए उल्टा सीधा बोलना प्रारंभ कर दिया । गुस्से में दोबारा मैथमेटिक्स लेकर के पढ़ना प्रारंभ किया । आगे के वर्षों में उसने इंजीनियरिंग का एग्जाम दिया ।एन आई टी में सिलेक्शन हो गया । शिक्षा संपन्न करने के बाद उसने अखिल भारतीय सर्विस का एग्जाम दिया और उसमें सफल हो गया । आईएएस बनने के बाद कलेक्टर के रूप में उसकी पोस्टिंग हुई । तब उसने देखा कि उस समय जिन लड़कों का पीएमटी में सिलेक्शन हो गया था ,वे आज उसको नमस्ते करते घूम रहे हैं । तब वह लड़का यह समझ पाया बजरंगबली ने पीएमटी के सिलेक्शन में उसकी क्यों मदद नहीं की थी ।
निष्कर्ष यह है कि आप एकाग्र होकर , मन क्रम वचन से शुद्ध होकर, हनुमान जी का सिर्फ ध्यान करें ,उनसे कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है ,आपको अपने आप जीवन का फल और ऐसा जीवन का फल जो कि अमित होगा, कभी समाप्त नहीं हो सकता होगा हनुमान जी आपको प्रदान करेंगे।
हनुमान चालीसा की अगली चौपाई "चारों युग परताप तुम्हारा है प्रसिद्ध जगत उजियारा" अपने आप में पूर्णतया स्पष्ट है । यह चौपाई कहती है कि आपके गुणों के प्रकाश से आपके प्रताप से और आपके प्रभाव से चारों युग में उजाला रहता है । यह चार युग हैं सतयुग त्रेता द्वापर और कलयुग । यहां पर आकर हम में से जिसको भी बुद्धि का और ज्ञान का अजीर्ण है उनको बहुत अच्छा मौका मिल गया है । हमारे ज्ञानवीर भाइयों का कहना है हनुमान जी का जन्म त्रेता युग में हुआ है । फिर सतयुग में वे कैसे हो सकते हैं । इसलिए हनुमान चालीसा से चारों युग परताप तुम्हारा की लाइन को हटा देना चाहिए । इसके स्थान पर तीनों युग परताप तुम्हारा होना चाहिए ।
हनुमान जी चिरंजीव है । उनकी कभी मृत्यु नहीं हुई है और न उनकी मृत्यु कभी होगी । यह वरदान सीता माता जी ने उनको अशोक वाटिका में दी है ऐसा हमें रामचरितमानस के सुंदरकांड में लिखा हुआ मिलता है :-
अजर अमर गुननिधि सुत होहू।
करहुँ बहुत रघुनायक छोहु।।
करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना।
निर्भर प्रेम मगन हनुमान।।"
हर त्रेता युग में एक बार श्री रामचंद्र जन्म लेते हैं और रामायण का अख्यान पूरा होता है । परंतु हनुमान जी पहले कल्प के पहले मन्वंतर के पहले त्रेता युग में जन्म ले चुके हैं और उसके उपरांत उनकी कभी मृत्यु नहीं हुई है इसलिए वे मौजूद मिलते हैं। इस प्रकार से चारों युग परताप तुम्हारा कहना उचित लग रहा है । आइए इस संबंध में विशेष रुप से चर्चा करते हैं ।
ब्रह्मा जी की उम्र 100ब्रह्मा वर्ष के बराबर है । अतः मेरे विचार से ब्रह्मा जी के पहले वर्ष के पहले कल्प के पहले मन्वंतर जिसका नाम स्वायम्भुव है के पहले चतुर्युग के पहले सतयुग में हनुमान जी नहीं रहे होंगे । एक मन्वंतर 1000/14 चतुर्युगों के बराबर अर्थात 71.42 चतुर्युगों के बराबर होती है । इस प्रकार एक मन्वंतर में 71 बार सतयुग आएगा । अतः पहले त्रेता युग मैं हनुमान जी अवतरित हुए होंगे । उसके बाद से सभी त्रेतायुग में हनुमान जी चिरंजीव होने के कारण मौजूद मिले होंगे ।
चैत्र नवरात्रि प्रतिपदा रविवार को सतयुग की उत्पत्ति हुई थी। इसका परिमाण 17,28,000 वर्ष है। इस युग में मत्स्य, हयग्रीव, कूर्म, वाराह, नृसिंह अवतार हुए जो कि सभी सभी अमानवीय थे। इस युग में शंखासुर का वध एवं वेदों का उद्धार, पृथ्वी का भार हरण, हरिण्याक्ष दैत्य का वध, हिरण्यकश्यपु का वध एवं प्रह्लाद को सुख देने के लिए यह अवतार हुए थे। इस काल में स्वर्णमय व्यवहारपात्रों की प्रचुरता थी। मनुष्य अत्यंत दीर्घाकृति एवं अतिदीर्घ आयुवाले होते थे।
उपरोक्त से स्पष्ट है की पहले कल्प के पहले मन्वंतर के पहले सतयुग में हनुमानजी नहीं थे ।उसके बाद के सभी सतयुग में हनुमान जी रहे हैं ।परंतु प्रकृति के नियमों में बंधे होने के कारण उन्होंने कोई कार्य नहीं किया है जो कि ग्रंथों में लिखा जा सके।
आइए अब हम हिंदू समय काल के बारे में चर्चा करते हैं ।
जब हम कोई पूजा पाठ करते हैं तो सबसे पहले हमारे पंडित जी हमसे संकल्प करवाते हैं और निम्न मंत्रों को बोलते हैं ।
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: । श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य अद्यैतस्य ब्रह्मणोह्नि द्वितीये परार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे युगे कलियुगे कलिप्रथमचरणे भूर्लोके भारतवर्षे जम्बूद्विपे भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गतब्रह्मावर्तस्य ............ क्षेत्रे ............ मण्डलान्तरगते ............ नाम्निनगरे (ग्रामे वा) श्रीगड़्गायाः ............ (उत्तरे/दक्षिणे) दिग्भागे देवब्राह्मणानां सन्निधौ श्रीमन्नृपतिवीरविक्रमादित्यसमयतः ......... संख्या -परिमिते प्रवर्त्तमानसंवत्सरे प्रभवादिषष्ठि -संवत्सराणां मध्ये ............ नामसंवत्सरे, ............ अयने, ............ ऋतौ, ............ मासे, ............ पक्षे, ............ तिथौ, ............ वासरे, ............ नक्षत्रे, ............ योगे, ............ करणे, ............ राशिस्थिते चन्द्रे, ............ राशिस्थितेश्रीसूर्ये, ............ देवगुरौ शेषेशु ग्रहेषु यथायथा राशिस्थानस्थितेषु सत्सु एवं ग्रहगुणविशेषणविशिष्टायां शुभपुण्यतिथौ ............ गोत्रोत्पन्नस्य ............ शर्मण: (वर्मण:, गुप्तस्य वा) सपरिवारस्य ममात्मन: श्रुति-स्मृति-पुराणोक्त-पुण्य-फलावाप्त्यर्थं ममऐश्वर्याभिः वृद्धयर्थं।
संकल्प में पहला शब्द द्वितीये परार्धे आया है । श्रीमद भगवत पुराण के अनुसार ब्रह्मा जी की आयु 100 वर्ष की है जिसमें से की पूर्व परार्ध अर्थात 50 वर्ष बीत चुके हैं तथा दूसरा परार्ध प्रारंभ हो चुका है। त्रैलोक्य की सृष्टि ब्रह्मा जी के दिन से प्रारंभ होने से होती है और दिन समाप्त होने पर उतनी ही लंबी रात्रि होती है । एक दिन एक कल्प कहलाता है।
यह एक दिन 1. स्वायम्भुव, 2. स्वारोचिष, 3. उत्तम, 4. तामस, 5. रैवत, 6. चाक्षुष, 7. वैवस्वत, 8. सावर्णिक, 9. दक्ष सावर्णिक, 10. ब्रह्म सावर्णिक, 11. धर्म सावर्णिक, 12. रुद्र सावर्णिक, 13. देव सावर्णिक और 14. इन्द्र सावर्णिक- इन 14 मन्वंतरों में विभाजित किया गया है। इनमें से 7वां वैवस्वत मन्वंतर चल रहा है। 1 मन्वंतर 1000/14 चतुर्युगों के बराबर अर्थात 71.42 चतुर्युगों के बराबर होती है।
यह भिन्न संख्या पृथ्वी के 27.25 डिग्री झुके होने और 365.25 दिन में पृथ्वी की परिक्रमा करने के कारण होती है। दशमलव के बाद के अंक को सिद्धांत के अनुसार नहीं लिया गया है । दो मन्वन्तर के बीच के काल का परिमाण 4,800 दिव्य वर्ष (सतयुग काल) माना गया है । इस प्रकार मन्वंतरों के बीच का काल=14*71=994 चतुर्युग हुआ।
हम जानते हैं कि कलयुग 432000 वर्ष का होता है इसका दोगुना द्वापर युग , 3 गुना त्रेतायुग एवं चार गुना सतयुग होता है । इस प्रकार एक महायुग 43 लाख 20 हजार वर्ष का होता है ।
71 महायुग मिलकर एक मन्वंतर बनाते हैं जो कि 30 करोड़ 67 लाख 20 हजार वर्ष का हुआ । प्रलयकाल या संधिकाल जो कि हर मन्वंतर के पहले एवं बाद में रहता है 17 लाख 28 हजार वर्ष का होता है। 14 मन्वन्तर मैं 15 प्रलयकाल होंगे अतः प्रलय काल की कुल अवधि 1728000*15=25920000 होगा। 14 मन्वंतर की अवधि 306720000*14=4294080000 होगी और एक कल्प की अवधि इन दोनों का योग 4320000000 होगी। जोकि ब्रह्मा का 1 दिन रात है। ब्रह्मा की कुल आयु (100 वर्ष) =4320000000*360*100=155520000000000=155520अरब वर्ष होगी। यह ब्रह्मांड और उसके पार के ब्रह्मांड का कुल समय होगा । वर्तमान विज्ञान को यह ज्ञात है कि ब्रह्मांड के उस पार भी कुछ है परंतु क्या है यह वर्तमान विज्ञान को अभी ज्ञात नहीं है।
अब हम पुनः एक बार संकल्प को पढ़ते हैं जिसके अनुसार वैवस्वत मन्वन्तर चल रहा है अर्थात 6 मन्वंतर बीत चुके हैं सातवा मन्वंतर चल रहा है । पिछले गणना से हम जानते हैं की एक मन्वंतर 306720000 वर्ष का होता है। छे मन्वंतर बीत चुके हैं अर्थात 306720000*6=1840320000 वर्ष बीत चुके हैं। इसमें सात प्रलय काल और जोड़े जाने चाहिए अर्थात (1728000*7) 12096000 वर्ष और जुड़ेंगे इस प्रकार कुल योग (1840320000+12096000) 1852416000 वर्ष होता है।
हम जानते हैं एक मन्वंतर 71 महायुग का होता है जिसमें से 27 महायुग बीत चुके हैं । एक महायुग 4320000 वर्ष का होता है इस प्रकार 27 महायुग (27*4320000) 116640000 वर्ष के होंगे । इस अवधि को भी हम बीते हुए मन्वंतर काल में जोड़ते हैं ( 1852416000+116640000) तो ज्ञात होता है कि 1969056000 वर्ष बीत चुके हैं।
28 वें महायुग के कलयुग का समय जो बीत चुका है वह (सतयुग के 1728000+ त्रेता युग 1296000+ द्वापर युग 864000 ) = 3888000 वर्ष होता है। इस अवधि को भी हम पिछले बीते हुए समय के साथ जोड़ते हैं (1969056000+ 3888000 ) और संवत 2079 कलयुग के 5223 वर्ष बीत चुके हैं।
अतः हम बीते गए समय में कलयुग का समय भी जोड़ दें तो कुल योग 1972949223 वर्ष आता है । इस समय को हम 1.973 Ga वर्ष भी कह सकते हैं।
ऊपर हम बता चुके हैं कि आधुनिक विज्ञान के अनुसार पृथ्वी का प्रोटेरोज़ोइक काल 2.5 Ga से 54.2 Ma वर्ष तथा और इसी अवधि में पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति हुई है। इन दोनों के मध्य में भारतीय गणना अनुसार आया हुआ समय 1.973 Ga वर्ष भी आता है । जिससे स्पष्ट है कि भारत के पुरातन वैज्ञानिकों ने पृथ्वी पर जीवन के प्रादुर्भाव की जो गणना की थी वह बिल्कुल सत्य है।
आधुनिक वैज्ञानिकों के अनुसार सूर्य 4.603 अरब वर्ष पहले अपने आकार भी आया था । इसी प्रकार पृथ्वी 4.543 अरब वर्ष पहले अपने आकार में आई थी।
हमारी आकाशगंगा 13.51 अरब वर्ष पहले बनी थी । अभी तक ज्ञात सबसे उम्रदराज वर्लपूल गैलेक्सी 40.03 अरब वर्ष पुरानी है । विज्ञान यह भी मानता है कि इसके अलावा और भी गैलेक्सी हैं जिनके बारे में अभी हमें ज्ञात नहीं है। हिंदू ज्योतिष के अनुसार ब्रह्मा जी का की आयु 155520 अरब वर्ष की है जिसमें से आधी बीत चुकी है। यह स्पष्ट होता है कि यह ज्योतिषीय संरचनाएं 77760 अरब वर्ष पहले आकार ली थी और कम से कम इतना ही समय अभी बाकी है।
ऊपर की विवरण से स्पष्ट है की हनुमान जी चारों युग में थे और उनकी प्रतिष्ठा भी हर समय रही है । एक सुंदर प्रश्न और भी है कि आदमी को यश या प्रतिष्ठा कैसे मिलती है । इस विश्व में बड़े-बड़े योद्धा राजा राष्ट्रपति हुए हैं परंतु लोग उनको एक समय बीतने के बाद भूलते जाते हैं परंतु तुलसीदास जी को नरसी मेहता जी को और भी ऋषि-मुनियों को कोई आज तक नहीं भूल पाया है । यश का सीधा संबंध आदमी के हृदय से है । जिसके हृदय में श्री राम बैठे हुए हैं उसकी प्रतिष्ठा हमेशा रहेगी । उसका यश हमेशा रहेगा । एक राजा की प्रतिष्ठा तभी तक रहती है जब तक वह सत्ता में है । सत्ता से हटते ही उसकी प्रतिष्ठा शुन्य हो जाती है । एक धनवान की प्रतिष्ठा तभी तक रहती है जब तक उसके पास धन है । कभी इस देश में टाटा और बिड़ला की सबसे ज्यादा प्रतिष्ठा थी , आज अंबानी और अदानी की है । परंतु संतों की प्रतिष्ठा सदैव एक जैसी रहती है । वह कभी समाप्त नहीं होती है । इसी तरह से कुछ और भी हैं जैसे कवि या लेखक, साइंटिस्ट आदि । इन की प्रतिष्ठा हमेशा ही एक जैसी रहती है, क्योंकि इनका किया हुआ कभी समाप्त नहीं होता है ।
हनुमान जी के हृदय में श्री राम जी सदैव बैठे हुए हैं उनकी प्रतिष्ठा कैसे समाप्त हो सकती है । एक भजन है :-
जिनके हृदय श्री राम बसे,
उन और को नाम लियो ना लियो ।
एक दूसरा भजन भी है :-
जिसके ह्रदय में राम नाम बंद है
उसको हर घडी आनंद ही आनंद है
लेकर सिर्फ राम नाम का सहारा
इस दुनिया को करके किनारा
राम जी की रजा में जो रजामंद है
उसको हर घडी आनंद ही आनंद है
अतः जिसके हृदय में श्री राम निवास करते हैं उसको कोई और नाम लेने की आवश्यकता नहीं है। हनुमान जी की प्रभा को करोड़ों सूर्य के बराबर बताया गया है:-
ओम नमों हनुमते रुद्रावताराय
विश्वरूपाय अमित विक्रमाय
प्रकटपराक्रमाय महाबलाय
सूर्य कोटिसमप्रभाय रामदूताय स्वाहा।
इस प्रकार यह सिद्ध हो गया कि इन करोड़ों सूर्य के प्रकाश के बराबर हनुमान जी का प्रकाश चारों युग में फैल रहा है ।
हनुमान जी की प्रतिष्ठा के बारे में बाल्मीकि रामायण के युद्ध कांड के प्रथम सर्ग के द्वितीय श्लोक में श्री रामचंद्र जी ने कहा है कि हनुमान जी ने ऐसा बड़ा काम किया है जिसे पृथ्वी तल पर कोई नहीं कर सकता है । करने की बात तो दूर कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है ।
कृतं हनुमता कार्यं सुमहद्भुवि दुर्लभम्।
मनसापि यदन्येन न शक्यं धरणीतले॥
(वा रा /युद्ध कांड/1./2)
और भी तारीफ करने के बाद श्री रामचंद्र जी ने कहा इस समय उनके पास अपना सर्वस्व दान देने के रूप में आलिंगन ही महात्मा हनुमान जी के कार्य के योग्य पुरस्कार है । यह कहने के उपरांत उन्होंने अपने आलिंगन में हनुमान जी को ले लिया ।
एष सर्वस्वभूते परिष्वङ्गो हनूमतः।
मया कालमिमं प्राप्य दत्तस्तस्य महात्मनः॥ (वाल्मीकि रामायण/युद्ध कांड/1 /13)
इत्युक्त्वा प्रीतिहृष्टाङ्गो रामस्तं परिषस्वजे।
हनूमन्तं कृतात्मानं कृतकार्यमुपागतम् ॥
(वा रा/युद्ध कांड/ 1/14)
इस प्रकार भगवान श्रीराम ने हनुमान जी को उनकी कृति और यश को हमेशा हमेशा के लिए फैलने का वरदान दिया।
रुद्रावतार पवन पुत्र केसरी नंदन अंजनी कुमार भगवान हनुमान जी की कीर्ति जब से यह संसार बना है और जब तक यह संसार रहेगा सदैव फैलती रहेगी । उनके प्रकाश से यह जग प्रकाशित होता रहेगा ।
साधु सन्त के तुम रखवारे |
असुर निकन्दन राम दुलारे ||
अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता |
अस बर दीन जानकी माता ||
अर्थ – आप साधु संतों के रखवाले, असुरों का संहार करने वाले और प्रभु श्रीराम के अत्यंत प्रिय हैं।
आप आठों प्रकार के सिद्धियों और नौ निधियों के प्रदाता हैं । आठों सिद्धियां और नौ निधियों को किसी को भी प्रदान कर देने का वरदान आपको जानकी माता ने दिया है।
भावार्थ:-
श्री हनुमान जी राक्षसों को समाप्त करने वाले हैं ।श्री रामचंद्र जी के अत्यंत प्रिय है । साधु संत और सज्जन पुरुषों कि वे रक्षा करते हैं । श्री रामचंद्र जी के इतने प्रिय हैं कि अगर आपको उनसे कोई बात मनमानी हो तो आप श्रीहनुमानजी को माध्यम बना सकते हैं ।
माता जानकी ने श्री हनुमान जी को अष्ट सिद्धियों और नौ निधियों का वरदान दिया हुआ है । इस वरदान के कारण वे किसी को भी अष्ट सिद्धियां और नौ निधियां प्रदान कर सकते हैं ।
संदेश:-
अपनी शक्तियों का सही इस्तेमाल करें और उन्हें उन्हीं को सौंपे, जो इसके असली हकदार हों।
इन चौपाइयों का बार बार पाठ करने से होने वाला लाभ:-
1-साधु सन्त के तुम रखवारे | असुर निकन्दन राम दुलारे ||
2-अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता | अस बर दीन जानकी माता ||
हनुमान चालीसा की इन चौपाईयों के बार बार पाठ करने से दुष्टों का नाश होता है , आपकी रक्षा होती है और आपके सभी इच्छाएं पूर्ण होती हैं ।
विवेचना:-
पहली चौपाई में हनुमान जी के लिए कहा गया है कि वे साधु और संतों के रखवाले हैं । असुरों के संहारक हैं और रामचंद्र जी के दुलारे हैं।
इस चौपाई को पढ़ने से कई प्रश्न मस्तिष्क में आते हैं । पहला प्रश्न है कि साधु कौन है और कौन संत है । इसके अलावा असुर किसको कहेंगे इस पर भी विचार करना होगा ।
साधु, संस्कृत शब्द है जिसका सामान्य अर्थ 'सज्जन व्यक्ति' से है। लघुसिद्धान्तकौमुदी में कहा है:-
'साध्नोति परकार्यमिति साधुः' (जो दूसरे का कार्य कर देता है, वह साधु है।) ।
वर्तमान समय में साधु उनको कहते हैं जो सन्यास दीक्षा लेकर गेरुए वस्त्र धारण करते है । आज के युग में सामान्यतः भिक्षाटन के ध्येय से लोग अपना सर साफ करके गेरुआ वस्त्र पहन कर के साधु सन्यासी बन जाते हैं । यह चौपाई ऐसे साधुओं के लिए नहीं है । वर्तमान में नकली और ढोंगी साधुओं व बाबाओं ने वातावरण को इतना प्रदूषित कर रखा है कि लोग सच्चे साधुओं व बाबाओं पर भी शंका करते हैं। इसका कारण यह है कि यह पहचानना बहुत मुश्किल हो गया है कि कौन सच्चा साधु है और कौन ढोंगी साधु है।
एक विद्वान ने सच्चे साधुओं की ऐसी पहचान बताई है, जिसके द्वारा हम नकली और असली साधु या बाबा में सरलता से भेद कर सकते हैं। इस विद्वान के अनुसार सच्चा साधु तीन बातों से हमेशा दूर रहता है- नमस्कार, चमत्कार और दमस्कार। इनके अर्थ जरा विस्तार से बताना आवश्यक है। नमस्कार का अर्थ है सच्चा साधु इस बात का इच्छुक नहीं होता है कि कोई उसे प्रणाम करें । वह भी अपने से श्रेष्ठ साथियों को ही केवल नमन करता है किसी और को नहीं ।‘
‘चमत्कार’ से दूर रहने का अर्थ है कि सच्चा साधु कभी कोई चमत्कार नहीं दिखाता है । वह जादू टोने के कार्यों से दूर रहता है । जादू टोने का कार्य करने वाले कोई जादूगर आदि हो सकते हैं सच्चे साधु सन्यासी नहीं । ढोंगी साधु और सन्यासी हमेशा चमत्कार करने की कोशिश करते हैं जिससे जनता उनसे प्रभावित रहे । उनको निरंतर द्रव्य प्रदान करती रहे।
इसी तरह ‘दमस्कार’ से दूर रहने का अर्थ है कि सच्चा साधु कभी अपने लिए धन एकत्र नहीं करता और न किसी से धन की याचना करता है। वह केवल अपनी आवश्यकता की न्यूनतम वस्तुएं मांग सकता है, कोई संग्रह नहीं करता। आजकल के अधिकतर बाबाओं के पास बड़ी-बड़ी संपत्तियां हैं।
कुछ लोग विशेष साधना करने वाले व्यक्ति को साधु कहते हैं । यह भी कहते हैं ऐसे व्यक्तियों के ज्ञानवान या विद्वान होने की आवश्यकता नहीं है ।परंतु यह परिभाषा मेरे विचार से सही नहीं है । साधु को ज्ञानवान होना आवश्यक है । उसे विद्वान होना ही चाहिए । आप समाज में रहकर भी अगर कोई विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करते हैं या कोई विशेष साधना करते हैं और जप तप नियम संयम का ध्यान रखते हैं तो आप साधु हो सकते हैं ।
कई बार अच्छे और बुरे व्यक्ति में फर्क करने के लिए भी साधु शब्द का प्रयोग किया जाता है। इसका कारण यह है कि साधना से व्यक्ति सीधा, सरल और सकारात्मक सोच रखने वाला हो जाता है। साथ ही वह लोगों की मदद करने के लिए हमेशा आगे रहता है।
आईये अब हम साधु शब्द की शब्दकोश के अर्थ की बात करते हैं । साधु का संस्कृत में अर्थ है सज्जन व्यक्ति । इसका एक उत्तम अर्थ यह भी है 6 विकार यानी काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर का त्याग कर देता है। जो इन सबका त्याग कर देता है उसे ही साधु की उपाधि दी जाती है।
साधु वह है जिसकी सोच सरल और सकारात्मक रहे और जो काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि का त्याग कर दे।
आइए अब हम संत शब्द पर चर्चा करते हैं । इस शब्द का अर्थ है सत्य का आचरण करने वाला व्यक्ति । प्राचीन समय में कई सत्यवादी और आत्मज्ञानी लोग संत हुए हैं। सामान्यत: ‘संत’ शब्द का प्रयोग बुद्धिमान, पवित्रात्मा, सज्जन, परोपकारी, सदाचारी आदि के लिए किया जाता है। कभी-कभी साधारण बालेचाल में इसे भक्त, साधु या महात्मा जैसे शब्दों का भी पर्याय समझ लिया जाता है। शांत प्रकृति वाले व्यक्तियों को संत कह दिया जाता है । संत उस व्यक्ति को कहते हैं, जो सत्य का आचरण करता है और आत्मज्ञानी होता है। जैसे- संत कबीरदास, संत तुलसीदास, संत रविदास। ईश्वर के भक्त या धार्मिक पुरुष को भी संत कहते हैं।
मेरे विचार से प्रस्तुत चौपाई में साधु और संत शब्द का उपयोग उन व्यक्तियों के लिए किया गया है जो सत्य का आचरण करते है सत्य निष्ठा का पालन करते है किसी को दुख नहीं देते हैं । उनसे किसी को तकलीफ नहीं होती है । वह लोगों के दुख दूर करने का प्रयास करते हैं तथा जिसकी सोच सरल और सकारात्मक होती है । जो काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि का त्याग कर दे वह संत है ।
इस चौपाई में तुलसीदास जी कहते हैं कि श्री हनुमान जी ऐसे उत्तम पुरुषों के रक्षक हैं । उनको कोई कष्ट नहीं होने देते हैं । उनके हर दुखों को दूर करते हैं । यह दुख दैहिक दैविक या भौतिक किसी भी प्रकार का हो सकता है । संत और साधु पुरुषों को अपना काम करना चाहिए । उनकी तकलीफों को दूर करने का कार्य तो हनुमान जी कर ही रहे हैं । एक प्रकार से ऐसे पुरुषों के माध्यम से हनुमान जी यह चाहते हैं कि जगत का कल्याण हो । जगत के लोग सही रास्ते पर चलें और किसी को किसी प्रकार की तकलीफ ना रहे ।
यह चौपाई बहुत लोगों को सन्मार्ग पर लाने का एक साधन भी है । इसके कारण बहुत सारे दुष्ट लोग भी संत बनने की तरफ प्रेरित हो सकते हैं ।
श्री हनुमान जी अगर साधु संतों की रक्षा करते हैं तो दुष्टों को दंड देने का कार्य भी वे करते हैं । जिस प्रकार की पुलिस की ड्यूटी होती है कि वह सज्जन लोगों की रक्षा करें । उसी प्रकार से चोर बदमाश डकैत आदि को दंड देना भी पुलिस की ही जवाबदारी है । हालांकि वर्तमान में भारतीय पुलिस कई स्थानों पर इसका उल्टा भी करती है ।
आइए अब हम असुर पर विचार करें। हम कह सकते हैं की जो सुर नहीं है वह असुर है। प्राचीन पौराणिक ग्रंथों में असुर दैत्य और राक्षस की तीन श्रेणियां है । यह सभी देवताओं का विरोध करते हैं । अब अगर हम रामायण या रामचरितमानस को देखें और पढ़ें तो पाएंगे कि हनुमान जी ने राक्षसों का वध सुंदरकांड से प्रारंभ किया है और युद्ध कांड या लंका कांड में लगातार करते चले गए हैं। इन्हीं राक्षसों को गोस्वामी तुलसीदास जी ने असुर कहकर संबोधित किया है। हनुमान जी के पराक्रम का विवरण गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस एवं महर्षि वाल्मीकि रचित बाल्मीकि रामायण में मिलता है । दोनों स्थानों पर यह विस्तृत रूप से बताया गया है कि हनुमान जी ने किन-किन राक्षसों का संहार किया है । हनुमान जी का श्री रामचंद्र जी से मिलन किष्किंधा कांड में होता है । उसके उपरांत सुंदरकांड और युद्ध कांड / लंका कांड में हनुमान जी द्वारा मारे गए एक एक राक्षस के बारे में बताया गया है।
सबसे पहले हम सुंदरकांड में हनुमान जी द्वारा मारे गए राक्षसों की चर्चा करते हैं ।
1-सिंहिका वध -जब श्री हनुमान जी माता सीता का पता लगाने के लिए समुद्र के ऊपर से जा रहे थे तब सिंहिका राक्षसी ने हनुमान जी को रोकने का प्रयास किया था । उसने हनुमान जी को खा जाने की चेष्टा की थी। सिंहिका राक्षसी समुद्र के ऊपर उड़ने वाले पक्षियों की छाया को देखकर छाया पकड़ लेती थी । जिससे कि उस पक्षी की गति रुक जाती थी । इसके उपरांत वह उस पक्षी को खा जाती थी । हनुमान जी जब समुद्र के ऊपर से लंका की तरफ जा रहे थे तो सिंहिका ने हनुमान जी की छाया को पकड़ लिया । हनुमान जी की गति रुक गई । गति रुकने के बारे में पता करने के लिए हनुमान जी ने चारों तरफ देखा परंतु पाया कि चारों तरफ किसी प्रकार का कोई अवरोध नहीं है । इसके उपरांत उन्होंने नीचे का देखा तब समझ में आया की सिंहिका ने उनकी छाया को पकड़ रखा है। इसके आगे का विवरण वाल्मीकि रामायण ,श्रीरामचरितमानस और हनुमत पुराण में अलग-अलग है ।
हनुमत पुराण के अनुसार हनुमान जी वेग पूर्वक सिंहिका के ऊपर कूद पड़े । भूधराकार , महा तेजस्वी महाशक्तिशाली पवन पुत्र के भार से सिंहिका पिसकर चूर चूर हो गई ।
वाल्मीकि रामायण के सुंदरकांड के प्रथम सर्ग के श्लोक क्रमांक 192 से 195 के बीच में इसका पूरा विवरण दिया गया है । इसके अनुसार हनुमानजी उसको देखते ही लघु आकार के हो गए और तुरंत उसके मुंह में प्रवेश कर गए। उन्होंने अपने नाखूनों से उसके मर्मस्थलों को विदीर्ण कर उसका वध किया और फ़िर सहसा उसके मुख से बाहर निकल आए।
ततस्तस्या नखैस्तीक्ष्णैर्मर्माण्युत्कृत्य वानरः।
उत्पपाताथ वेगेन मनः सम्पातविक्रमः।।
(वाल्मीकि रामायण /सुंदरकांड /प्रथम सर्ग/194)
रामचरितमानस में सिर्फ इतना लिखा हुआ है कि समुद्र में एक निशिचर रहता था । यह आकाश में उड़ते हुए जीव-जंतुओं को मारकर खा जाता था ।हनुमान जी को भी उसने खाने का भी उसने प्रयास किया । परंतु पवनसुत ने उसको मार कर के स्वयं समुद्र के उस पार पहुंच गए ।
किंकर राक्षसों का वध -
देवी सीता से वार्तालाप करने के उपरांत हनुमान जी ने सोचा थोड़ी अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया जाए । वे अशोक वाटिका को पूर्णतया विध्वंस करने लगे । उनको रोकने के लिए कींकर राक्षसों का समूह आया। वे सब के सब एक साथ हनुमानजी पर टूट पड़े। हनुमान जी ने उन सभी को समाप्त कर दिया । जो कुछ थोड़े बहुत बच गये वे इस घटना के बारे में बताने के लिए रावण के पास गए।
स तं परिघमादाय जघान रजनीचरान्।
स पन्नगमिवादाय स्फुरन्तं विनतासुतः।।
(वाल्मीकि रामायण /सुंदरकांड /42 /40)
विचचाराम्बरे वीरः परिगृह्य च मारुतिः।
स हत्वा राक्षसान्वीरान्किङ्करान्मारुतात्मजः।।
युद्धाकाङ्क्षी पुनर्वीरस्तोरणं समुपाश्रितः।
(वाल्मीकि रामायण /सुंदरकांड/42/41 -42)
रामचरितमानस में भी इस घटना का इसी प्रकार का विवरण है।
चलेउ नाइ सिरु पैठेउ बागा।
फल खाएसि तरु तोरैं लागा॥
रहे तहाँ बहु भट रखवारे।
कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे॥
इन लोगों ने जाकर जब रावण से इस घटना के बारे में बताया तब रावण ने कुछ और विशेष बलशाली राक्षसों को भेजा :-
सुनि रावन पठए भट नाना।
तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना॥
सब रजनीचर कपि संघारे।
गए पुकारत कछु अधमारे॥
भावार्थ —यह बात सुनकर रावण ने बहुत सुभट पठाये (राक्षस योद्धा भेजे)। उनको देखकर युद्धके उत्साह से हनुमानजी ने भारी गर्जना की।
हनुमानजीने उसी समय तमाम राक्षसों को मार डाला। जो कुछ अधमरे रह गए थे वे वहां से पुकारते हुए भागकर गए॥
चैत्य प्रसाद के सामने राक्षसों की हत्या:-
अशोक वाटिका को नष्ट करने के उपरांत हनुमान जी रावण के महल चैत्य प्रसाद चढ गये । एक खंभा उखाड़ कर वहां पर उपस्थित सभी राक्षसों को मारने लगे । वाल्मीकि रामायण में इसको यों कहा गया है :-
दह्यमानं ततो दृष्ट्वा प्रासादं हरियूथपः।
स राक्षसशतं हत्त्वा वज्रेणेन्द्र इवासुरान्।।
(वाल्मीकि रामायण/ सुंदरकांड/43/19)
जम्बुमाली वध -
इसके बाद रावण ने अपने पौत्र जम्बुमाली को युद्ध करने भेजा। दोनों में कुछ देर तक अच्छा युद्ध हुआ। इसके बाद हनुमानजी ने एक परिघ को उठाकर उसकी छाती पर प्रहार किया। इस वार से रावण का पौत्र धाराशाई हो कर पृथ्वी पर गिर पड़ा तथा मृत्यु को प्राप्त हुआ।
जम्बुमालिं च निहतं किङ्करांश्च महाबलान्।
चुक्रोध रावणश्शुत्वा कोपसंरक्तलोचनः।।
स रोषसंवर्तितताम्रलोचनः प्रहस्तपुत्त्रे निहते महाबले।
अमात्यपुत्त्रानतिवीर्यविक्रमान् समादिदेशाशु निशाचरेश्वरः।।
(वाल्मीकि रामायण /सुंदरकांड/44/19-20)
प्रहस्त पुत्र महाबली जम्बुमाली और 10 सहस्त्र महाबली किंकर राक्षसों के मारे जाने का संवाद सुन रावण ने अत्यंत पराक्रमी और बलवान मंत्री पुत्रों को युद्ध करने के लिए तुरंत जाने की आज्ञा दी।
परमवीर महावीर हनुमान जी ने इस दौरान कुछ और विशेष राक्षसों का वध किया जिनके नाम निम्न वक्त हैं।
1-रावण के सात मंत्रियों के पुत्रों का वध -
2-रावण के पाँच सेनापतियों का वध -
इसके बाद रावण ने विरूपाक्ष, यूपाक्ष, दुर्धर, प्रघस और भासकर्ण ये पांच सेनापति हनुमानजी के पास भेजे। यह सभी हनुमान जी द्वारा मारे गए।
3-रावणपुत्र अक्षकुमार का वध -
स भग्नबाहूरुकटीशिरोधरः क्षरन्नसृङिनर्मथितास्थिलोचनः।
सम्भग्नसन्धि: प्रविकीर्णबन्धनो हतः क्षितौ वायुसुतेन राक्षसः।।
(वाल्मीकि रामायण /सुंदरकांड/47/36)
नीचे गिरते ही उसकी भुजा, जाँघ, कमर और छातीके टुकड़े-टुकड़े हो गये, खूनकी धारा बहने लगी, शरीरकी हड्डियाँ चूर-चूर हो गयीं, आँखें बाहर निकल आयीं, अस्थियोंके जोड़ टूट गये और नस-नाड़ियोंके बन्धन शिथिल हो गये। इस तरह वह राक्षस पवनकुमार हनुमान्जीके हाथसे मारा गया॥
4-लंका दहन
5-धूम्राक्ष का वध
5-अकम्पन का वध
6-रावणपुत्र देवान्तक और त्रिशिरा का वध -
7-निकुम्भ का वध
8-अहिरावण का वध
महाबली हनुमान जी ने पंचमुखी हनुमान जी का रूप धारण कर अहिरावण का वध कर राम और लक्ष्मण जी को पाताल लोक से वापस लेकर के आए थे।
इनके अलावा युद्ध के दौरान महाबली हनुमान ने सहस्त्र और राक्षसों का वध किया ।
अशोक वाटिका में सीता जी ने भी हनुमान जी को रघुनाथ जी का सबसे ज्यादा प्रिय होने का वरदान दिया है । यह वरदान सीता माता जी ने उनको अशोक वाटिका में दिया है । ऐसा हमें रामचरितमानस के सुंदरकांड में लिखा हुआ मिलता है :-
अजर अमर गुननिधि सुत होहू।
करहुँ बहुत रघुनायक छोहु।।
करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना।
निर्भर प्रेम मगन हनुमान।।"
पुत्र! तुम अजर (बुढ़ापे से रहित), अमर और गुणों के खजाने होओ। श्री रघुनाथजी तुम पर बहुत कृपा करें। 'प्रभु कृपा करें' ऐसा कानों से सुनते ही हनुमान जी पूर्ण प्रेम में मग्न हो गए॥2॥
इस प्रकार असुरों को समाप्त करके हनुमान जी रामचंद्र जी के प्रिय हो गए । रामचंद्र जी ने इसके उपरांत हनुमान जी को कई वरदान दिये ।
अगली चौपाई तुलसीदास जी लिखते हैं :-
"अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता ,
अस बर दीन जानकी माता"
मां जानकी ने हनुमान जी को वरदान दिया है कि वे अष्ट सिद्धि और नवनिधि का वरदान किसी को भी दे सकते हैं । इसका अर्थ है हनुमान जी के पास पहले से ही अष्ट सिद्धियां और नौ निधियां थीं परंतु इनको वे किसी को दे नहीं सकते थे । माता सीता ने हनुमान जी को यह वरदान दिया है कि वे अपनी इन सिद्धियों निधियों को दूसरों को भी दे सकते हैं ।
भारतीय दर्शन में अष्ट सिद्धियों की और 9 निधियों की बहुत महत्व है । अष्ट सिद्धियों के बारे में निम्न श्लोक है।
अणिमा महिमा चैव लघिमा गरिमा तथा ।
प्राप्तिः प्राकाम्यमीशित्वं वशित्वं चाष्ट सिद्धयः ।।
अर्थ - अणिमा , महिमा, लघिमा, गरिमा तथा प्राप्ति प्राकाम्य इशित्व और वशित्व ये सिद्धियां "अष्टसिद्धि" कहलाती हैं।
ऐसी पारलौकिक और आत्मिक शक्तियां जो तप और साधना से प्राप्त होती हैं सिद्धियां कहलाती हैं । ये कई प्रकार की होती हैं। इनमें से अष्ट सिद्धियां जिनके नाम हैं अणिमा , महिमा, लघिमा, गरिमा प्राप्ति प्राकाम्य इशित्व और वशित्व ज्यादा प्रसिद्ध हैं।
1-अणिमा - अपने शरीर को एक अणु के समान छोटा कर लेने की क्षमता। इस सिद्धि को प्राप्त करने के उपरांत व्यक्ति छोटे से छोटा आकार धारण कर सकता है और वह इतना छोटा हो सकता है कि वह किसी को दिखाई ना दे । हनुमान जी जब श्री लंका गए थे तो वहां पर सीता मां का पता लगाने के लिए उन्होंने अत्यंत लघु रूप धारण किया था । यह उनकी अणिमा सिद्धि का ही चमत्कार है।
2. महिमा - शरीर का आकार अत्यन्त बड़ा करने की क्षमता। इस सिद्धि को प्राप्त करने के उपरांत व्यक्ति अपना आकार असीमित रूप से बढ़ा सकता है । सुरसा ने जब हनुमान जी को पकड़ने के लिए अपने मुंह को बढ़ाया था तो हनुमान जी ने भी उस समय अपने शरीर का आकार बढा लिया था । यह चमत्कार हनुमान जी अपनी महिमा शक्ति के कारण कर पाए थे ।
3. गरिमा - शरीर को अत्यन्त भारी बना देने की क्षमता। गरिमा सिद्धि में व्यक्ति की शरीर का आकार वही रहता है परंतु व्यक्ति का भार वढ़ जाता है । यह व्यक्ति के शरीर के अंगो का घनत्व बढ़ जाने के कारण होता है । महाभारत काल में ,भीम के घमंड को तोड़ने के लिए भगवान कृष्ण के , आदेश पर हनुमान जी भीम के रास्ते में सो गए थे । भीम के रास्ते में हनुमान जी की पूंछ आ रही थी । भीम ने उनको अपनी पूछ हटाने के लिए कहा परंतु हनुमान जी ने कहा कि मैं वृद्ध हो गया हूं । उठ नहीं पाता हूं । आप हटा दीजिए । भीम जी ने इस बात की काफी कोशिश की कि हनुमान जी की पूंछ को हटा सकें परंतु वे पूंछ को हटा नहीं पाए । इस प्रकार भीम जी का अत्यंत बलशाली होने का घमंड टूट गया ।
4. लघिमा - शरीर को भार रहित करने की क्षमता। यह सिद्धि गरिमा की प्रतिकूल सिद्धि है । इसमें शरीर का माप वही रहता है परंतु उसका भार अत्यंत कम हो जाता है । इस सिद्धि में शरीर का घनत्व कम हो जाता है। इस सिद्धि के रखने वाले पुरुष पानी को सीधे चल कर पार कर सकते हैं ।
5. प्राप्ति - बिना रोक टोक के किसी भी स्थान पर कुछ भी प्राप्त कर लेने की क्षमता । प्राप्ति सिद्धि वाला व्यक्ति किसी भी स्थान पर बगैर रोक-टोक के कुछ भी प्राप्त कर सकता है । एक पुस्तक है Living with Himalayan masters . इस पुस्तक के लेखक नाम श्रीराम है । इस पुस्तक में लेखक ने लिखा है कि उनको हिमालय पर कुछ ऐसे संत मिले जिनसे कुछ भी खाने पीने की कोई भी चीज मांगो वह तत्काल प्रस्तुत कर देते थे । मेरी मुलाकात भी 1989 में सिवनी , मध्यप्रदेश में मध्य प्रदेश विद्युत मंडल के कार्यपालन यंत्री श्री एमडी दुबे साहब से हुई थी । उनके पास भी इस प्रकार की सिद्धि है । इसके कारण वे कहीं से भी कोई भी सामग्री तत्काल बुला देते थे । मुझको उन्होंने एक शिवलिंग बुलाकर दिया था। वर्तमान में वे मुख्य अभियंता के पद से सेवानिवृत्त होने के बाद जबलपुर में निवास करते हैं । मुझे बताया गया है कि अभी करीब 3 महीने पहले श्रीसत्यनारायण कथा के दौरान श्रीसत्यनारायण कथा के वाचक श्री हिमांशु तिवारी द्वारा श्री यंत्र मांगे जाने पर उनको तत्काल श्री यंत्र अर्पण किया था ।
6. प्राकाम्य - इस सिद्धि में व्यक्ति जमीन के अलावा नदी पर भी चल सकता है हवा में भी उड सकता है । कई लोगों ने वाराणसी में गंगा नदी को चलकर के पार किया है।
7. ईशित्व - प्रत्येक वस्तु और प्राणी पर पूर्ण अधिकार की क्षमता। ईशित्व सिद्धि वाले व्यक्ति अगर चाहे तो पूरे संसार को अपने बस में कर सकता है । अगर वह चाहे तो उसके सामने वाले साधारण व्यक्ति को ना चाहते हुए भी उसकी बात माननी ही पड़ेगी।
8. वशित्व - प्रत्येक प्राणी को वश में करने की क्षमता। इस सिद्धि को रखने वाला व्यक्ति किसी को भी अपने वश में कर सकता है । हम यह कह सकते हैं सम्मोहन विद्या जानने वाले व्यक्ति के पास वशित्व की सिद्धि होती है ।
अष्ट सिद्धियां वे सिद्धियाँ हैं, जिन्हें प्राप्त कर व्यक्ति किसी भी रूप और देह में वास करने में सक्षम हो सकता है। वह सूक्ष्मता की सीमा पार कर सूक्ष्म से सूक्ष्म तथा जितना चाहे विशालकाय हो सकता है।
परमात्मा के आशीर्वाद के बिना सिद्धि नहीं पायी जा सकती । अर्थात साधक पर भगवान की कृपा होनी चाहिए । भगवान हमारे ऊपर कृपा करें इसके लिए हमारे अंदर भी कुछ गुण होना चाहिए। हमारा जीवन ऐसा होना चाहिए कि उसे देखकर भगवान प्रसन्न हो जाएं । एकबार आप भगवान के बन गये तो फिर साधक को सिद्धि और संपत्ति का मोह नहीं रहता । उसका लक्ष्य केवल भगवद् प्राप्ति होती है ।
कुछ लोग सिद्धि प्राप्त करने के चक्कर में अपना संपूर्ण जीवन समाप्त कर देते है । एक बार तुकाराम महाराज को नदी पार करनी थी । उन्होने नाविक को दो पैसे दिये और नदी पार की । उन्होने भगवान पांडुरंग के दर्शन किये । थोडी देर के बाद वहाँ एक हठयोगी आया उसने नांव में न बैठकर पानी के ऊपर चलकर नदी पार की। उसके बाद उसने तुकाराम महाराज से पूछा, ‘क्या तुमने मेरी शक्ति देखी?’
तुकाराम महाराज ने कहा हाँ, तुम्हारी योग शक्ति मैने देखी । मगर उसकी कीमत केवल दो पैसे हैै। यह सुनकर हठयोगी गुस्सेमें आ गया । उसने कहा, तुम मेरी योग शक्ति की कीमत केवल दो पैसे गिनते हो? तब तुकाराम महाराज ने कहा, हाँ मुझे नदी पार करनी थी । मैने नाविक को दो पैसे दिये और उसने नदी पार करा दी । जो काम दो पैसे से होता है वही काम की सिद्धि के लिए तुमने इतने वर्ष बरबाद किये इसलिए उसकी कीमत दो पैसे मैने कही । कहने का तात्पर्य हमारा लक्ष्य भगवद्प्राप्ति का होना चाहिए । उसके लिए प्रयत्न करना चाहिए ।
हमारा मन काम-वासना से गीला रहता है । गीले मन पर भक्ति का रंग नहीं चढता । मकान की दिवाले गीली होती है, तो उनपर रंग-सफेदी आदि नहीं की जाती । ऐसे ही मन का भी है । गीली लडकी जलाई जाती है तो धुआँ उडाकर दूसरे की आँखाें में आँसु निकालती है । इसलिए मन में से वासना-लालसा निकालकर उसे शुष्क करना पडेगा तभी उसमें भक्ति का रंग खिलेगा और भगवान उसे स्वीकार करेंगे।
आइए अब हम नव निधियों के बारे में बात करते हैं ।
1-पद्म निधि, 2. महापद्म निधि, 3. नील निधि, 4. मुकुंद निधि, 5. नंद निधि, 6. मकर निधि, 7. कच्छप निधि, 8. शंख निधि और 9. खर्व या मिश्र निधि। माना जाता है कि नव निधियों में केवल खर्व निधि को छोड़कर शेष 8 निधियां पद्मिनी नामक विद्या के सिद्ध होने पर प्राप्त हो जाती हैं, लेकिन इन्हें प्राप्त करना इतना भी सरल नहीं है।
पद्म निधि:-
पद्म निधि के लक्षणों से संपन्न मनुष्य सात्विक गुण युक्त होता है । उसकी कमाई गई संपदा भी सात्विक होती है । सात्विक तरीके से कमाई गई संपदा से कई पीढ़ियों को धन-धान्य की कमी नहीं रहती है। ये लोग उदारता से दान भी करते हैं।
महापद्म निधि:-
महापद्म निधि भी पद्म निधि की तरह सात्विक है। हालांकि इसका प्रभाव 7 पीढ़ियों के बाद नहीं रहता। इस निधि से संपन्न व्यक्ति भी दानी होता है । वह और उसकी 7 पीढियों तक सुख ऐश्वर्य भोगा जाता है।
नील निधि:-
नील निधि उनके पास होती है जो कि धन सत्व और रज गुण दोनों ही से अर्जित करते हैं । सामान्यतया ऐसी निधि व्यापार द्वारा ही प्राप्त होती है । इसलिए इस निधि से संपन्न व्यक्ति में दोनों ही गुणों की प्रधानता रहती है। इस निधि का प्रभाव तीन पीढ़ियों तक ही रहता है।
मुकुंद निधि:-
मुकुंद निधि में रजोगुण की प्रधानता रहती है ।इसलिए इसे राजसी स्वभाव वाली निधि कहा गया है। इस निधि से संपन्न व्यक्ति या साधक का मन भोगादि में लगा रहता है। ऐसे व्यक्ति स्वयं निधि अर्जित करते हैं और स्वयं उसको खा पीकर समाप्त कर देते हैं । इसका एक उदाहरण नोएडा के पास रहने वाले मेरे मित्र के भाई साहब । भाई साहब किसान हैं और उनके पास बहुत ज्यादा जमीन है । इस जमीन को शासन ने एक्वायर की थी। उसके उपरांत मुआवजा दिया था । उस समय के हिसाब से मुआवजा की रकम काफी बड़ी थी । भाई साहब ने जमीन का मुआवजा पाने के उपरांत 10 साल तक लगातार ु के साथ पार्टी करने में व्यस्त रहे । उनका लिवर खराब हो गया जो कुछ बचा था वह दवा में खर्च हो गया और अंत में पूरी निधि समाप्त हो गई । मुकुंद निधि पहली पीढ़ी बाद खत्म हो जाती है।
नंद निधि:-
नंद निधि में रज और तम गुणों का मिश्रण होता है। माना जाता है कि यह निधि साधक को लंबी आयु व निरंतर तरक्की प्रदान करती है। ऐसी निधि से संपन्न व्यक्ति अपनी प्रशंसा की सुनना चाहता है । अगर आप उसको उसकी अवगुणों के बारे में बताएं तो वह अत्यंत नाराज हो जाएगा । ऐसे व्यक्ति आपके आसपास काफी मात्रा में मिलेंगे जैसे कि आपके अपने अधिकारी । उनको अपने पिछले जन्म में किए गए कार्यों के कारण अधिकार मिले । इस जन्म में वे इस अधिकार में इतने गरूर में आ गए कि अगर उनको कोई उनकी बुराई बताएं तो वे अत्यंत नाराज हो जाएंगे।
मकर निधि:-
मकर निधि को तामसी निधि कहा गया है। तमस हम अंधकार को कहते हैं । राक्षस और निशाचर तामसिक वृत्ति के होते हैं । इस निधि से संपन्न साधक अस्त्र और शस्त्र को संग्रह करने वाला होता है। आज के बाहुबली राजनीतिज्ञ इसी निधि के उदाहरण है । ऐसे व्यक्ति का राज्य और शासन में दखल होता है। वह शत्रुओं पर भारी पड़ता है और मारपीट के लिए तैयार रहता है। । इनकी मृत्यु भी अस्त्र-शस्त्र या दुर्घटना में होती है। आतंकी घुसपैठिए मकर निधि के स्वामी होते हैं । डाकू भी इसी निधि के वाहक होते हैं।
शंख निधि:-
शंख निधि को प्राप्त व्यक्ति स्वयं की ही चिंता और स्वयं के ही भोग की इच्छा करता है। वह कमाता तो बहुत है, लेकिन उसके परिवार और यहां तक की अपने पत्नी और बच्चों को भी नहीं देता है । शंख निधि के परिवार वाले भी गरीबी में ही जीते हैं। ऐसा व्यक्ति धन का उपयोग स्वयं के सुख-भोग के लिए करता है,। उसका परिवार गरीबी में जीवन गुजारता है।
कच्छप निधि:-
कच्छप निधि का साधक अपनी संपत्ति को छुपाकर रखता है। न तो स्वयं उसका उपयोग करता है, न करने देता है। वह सांप की तरह उसकी रक्षा करता है। जिस प्रकार एक कछुआ अपने सभी अंगों को अपने अंदर समेट लेता है ,और उसके ऊपर एक काफी मजबूत कवच रहता है ,ऐसे ही कच्छप निधि वाले व्यक्ति धन होते हुए भी उसका उपभोग नहीं कर करते हैं और ना किसी को करने देते हैं । आप बहुत सारे ऐसे भिखारी देखोगे जिनके पास पैसा तो बहुत रहा है परंतु उन्होंने कुछ भी सुख नहीं होगा और उनके मरने के बाद उनके सामान में से लाखों रुपए बरामद हुए ।
खर्व निधि:-
खर्व निधि को मिश्रत निधि कहते हैं। नाम के अनुरुप ही इस निधि से संपन्न व्यक्ति में अन्य आठों निधियों का सम्मिश्रण होती है। इस निधि से संपन्न व्यक्ति को मिश्रित स्वभाव का कहा गया है। उसके कार्यों और स्वभाव के बारे में भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। माना जाता है कि इस निधि को प्राप्त व्यक्ति घमंडी भी होता हैं,। यह मौके मिलने पर दूसरों का पैसा छीन सकता है। इसके पास तामसिक वृत्ति ज्यादा होती है ।
अब इनमें से आप जो भी सिद्धि और निधि चाहते हो उसको देने के लिए हमारे आराध्य श्री हनुमान जी समर्थ है । आपको मन क्रम वचन को एकाग्र करके शुद्ध सात्विक मन से केवल स्मरण करना है । आपके लिए जो भी उपयुक्त होगा वह वे स्वयं प्रदान कर देंगे।
जय श्री राम
जय हनुमान
अर्थ- आप निरंतर श्री रघुनाथ जी की शरण में रहते है, जिससे आपके पास बुढ़ापा और असाध्य रोगों के नाश के लिए राम नाम औषधि है।
यहां पर रसायन शब्द का अर्थ दवा है । गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि हनुमान जी के पास में राम नाम का रसायन है । इसका अर्थ हुआ हनुमान जी के पास राम नाम रूपी दवा है । आप श्री रामचंद्र जी के सेवक हैं इसलिए आपके पास नामरूपी दवा है । इस दवा का उपयोग हर प्रकार के रोग में किया जा सकता है । सभी रोग इस दवा से ठीक हो जाते हैं ।
मेरा यह परम विश्वास है कि अगर आप बजरंगबली के सानिध्य में हैं ,बजरंगबली के ध्यान में है तो किसी भी तरह की व्याधि और, विपत्ति आपका कुछ भी बिगाड़ नहीं सकती हैं । क्योंकि बजरंगबली के पास राम नाम का रसायन है । अज्ञेय कवि ने कहा है:-
क्यों डरूँ मैं क्षीण-पुण्या अवनि के संताप से भी? व्यर्थ जिसको मापने में हैं विधाता की भुजाएँ— वह पुरुष मैं, मर्त्य हूँ पर अमरता के मान में हूँ!
मैं हनुमान जी के ध्यान में हूं तो मैं मृत्यु से भी क्यों डरूं । मैं अपने आप को छोटा क्यों समझूं । हमारे हनुमान जी के पास तो राम नाम का रसायन है ।
राम शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है रम् + घम । रम् का अर्थ है रमना या निहित होना । घम का अर्थ है ब्रह्मांड का खाली स्थान । इस प्रकार राम शब्द का अर्थ हुआ जो पूरे ब्रह्मांड में रम रहा है वह राम है । अर्थात जो पूरे ब्रह्मांड में जो हर जगह है वह राम है ।
राम हमारे आराध्य के आराध्य का नाम भी है । पहले हम यह विचार लेते हैं कि हम श्री राम को अपने आराध्य का आराध्य क्यों कहते हैं । हमारे आराध्य हनुमान जी हैं और हनुमान जी के आराध्य श्री राम जी हैं । इसलिए श्री राम जी हमारे आराध्य के आराध्य हैं । हनुमान जी स्वयं को , अपने आप को श्री राम का दास कहते हैं । यह भी सत्य है कि सीता जी ने भी हनुमान जी को श्री राम जी के दास के रूप में स्वीकार किया है ।:-
अर्थ:-हनुमान जी के प्रेमयक्त वचन सुनकर सीताजी के मन में विश्वास उत्पन्न हो गया, उन्होंने जान लिया कि यह मन, वचन और कर्म से कृपासागर श्री रघुनाथजी का दास है॥
हनुमान जी के सभी भक्तों को यह ज्ञात है श्री राम जी हनुमान जी की आराध्य हैं । फिर भी हनुमानजी के भक्त सीधे श्री राम जी के भक्त बनना क्यों नहीं पसंद करते हैं ।
बुद्धिमान लोग इसके बहुत सारे कारण बताएंगे परंतु हम ज्ञानहीन लोगों के पास ज्ञान की कमी है ।इसके कारण हम बुद्धिमान लोगों की बातों को कम समझ पाते हैं । मैं तो सीधी साधी बात जानता हूं । हम सभी हनुमान जी के पुत्र समान है और हनुमान जी अपने आप को रामचंद्र जी के पुत्र के बराबर मानते हैं । इस प्रकार हम सभी श्री राम जी के पौत्र हुए । यह बात जगत विख्यात है कि मूल से ज्यादा सूद प्यारा होता है या यह कहें पुत्र से ज्यादा पौत्र प्यारा होता है । इस प्रकार हनुमान जी के भक्तों को श्री रामचंद्र जी अपने भक्तों से ज्यादा चाहते हैं । इसलिए ज्यादातर लोग पहले हनुमान जी से लगन लगाना ज्यादा पसंद करते हैं ।
हम पुर्व में बता चुके हैं श्रीराम का अर्थ है सकल ब्रह्मांड में रमा हुआ तत्व यानी चराचर में विराजमान स्वयं परमब्रह्म ।
शास्त्रों में लिखा है, “रमन्ते योगिनः अस्मिन सा रामं उच्यते” अर्थात, योगी ध्यान में जिस शून्य में रमते हैं उसे राम कहते हैं।
भारतीय समाज में राम शब्द का एक और उपयोग है । जब हम किसी से मिलते हैं तो आपस में अभिवादन करते हैं । कुछ लोग नमस्कार करतें हैं । कुछ लोग प्रणाम करतें हैं और कुछ लोग राम-राम कहते हैं। यहां पर दो बार राम नाम का उच्चारण होता है जबकि नमस्कार या प्रणाम का उच्चारण एक ही बार किया जाता है । हमारे वैदिक ऋषि-मुनियों ने जो भी क्रियाकलाप तय किया उसमें एक विशेष साइंस छुपा हुआ है । राम राम शब्द में भी एक विज्ञान है । आइए राम शब्द को दो बार बोलने पर चर्चा करते हैं ।
एक सामान्य व्यक्ति 1 मिनट में 15 बार सांस लेता छोड़ता है । इस प्रकार 24 घंटे में वह 21600 बार सांस लेगा और छोड़ेगा । इसमें से अगर हम ज्योतिष के अनुसार रात्रि मान के औसत 12 घंटे का तो दिनमान के 12 घंटों में वाह 10800 बार सांस लेगा और छोड़ेगा । क्योंकि किसी देवता का नाम पूरे दिन में 10800 बार लेना संभव नहीं है ।इसलिए अंत के दो शुन्य हम काट देते हैं । इस तरह से यह संख्या 108 आती है । इसीलिए सभी तरह के जाप के लिए माला में मनको की संख्या 108 रखी जाती है । यही 108 वैदिक दृष्टिकोण के अनुसार पूर्ण ब्रह्म का मात्रिक गुणांक भी है। हिंदी वर्णमाला में क से गिनने पर र अक्षर 27 वें नंबर पर आता है । आ की मात्रा दूसरा अक्षर है और "म" अक्षर 25 वें नंबर पर आएगा। इस प्रकार राम शब्द का महत्व 27+2+25=54 होता है अगर हम राम राम दो बार कहेंगे तो यह 108 का अंक हो जाता है जो कि परम ब्रह्म परमात्मा का अंक है । इस प्रकार दो बार राम राम कहने से हम ईश्वर को 108 बार याद कर लेते हैं,।
मेरे जैसा तुच्छ व्यक्ति राम नाम की महिमा का गुणगान कहां कर पाएगा । गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है :-
स्वयं राम भी 'राम' शब्द की विवेचना नहीं कर सकते । 'राम' विश्व संस्कृति के नायक है। वे सभी सद्गुणों से युक्त है। अगर सामाजिक जीवन में देखें तो- राम आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श मित्र, आदर्श पति, आदर्श शिष्य के रूप में प्रस्तुत किए गए हैं। अर्थात् समस्त आदर्शों के एक मात्र न्यायादर्श 'राम' है।
क्योंकि राम शब्द की पूर्ण विवेचना करना मेरे जैसे तुच्छ व्यक्ति के सामर्थ्य के बाहर है अतः इस कार्य को यहीं विराम दिया जाता है।
3.जरा व्याधिनाशक औषधि। वैद्यक के अनुसार वह औषध जो मनुष्य को सदा स्वस्थ और पुष्ट बनाये रखती है ।
अगर हम रसायन शब्द का इस्तेमाल पदार्थ के तत्व ज्ञान के बारे में करते हैं यह कह सकते हैं के हनुमान जी के पास राम नाम का पूरा ज्ञान है। पूर्ण ज्ञान होने के कारण हनुमान जी रामचंद्र जी के पास पहुंचने के एक सुगम सोपान है । अगर आपने हनुमान जी को पकड़ लिया तो रामजी तक पहुंचना आपके लिए काफी आसान हो जाएगा ।अगर आप सीधे रामजी के पास पहुंचना चाहोगे यह काफी मुश्किल कार्य होगा । अगर हम लोकाचार की बात करें तो यह उसी प्रकार है जिस प्रकार प्रधानमंत्री से मिलने के लिए हमें किसी सांसद का सहारा लेना चाहिए । मां पार्वती से मिलने के लिए गणेश जी का सहारा , गणेश जी की अनुमति लेना चाहिए । इस चौपाई से तुलसीदास जी कहना चाहते हैं रामजी तक आसानी से पहुंचने के लिए हमें पहले हनुमान जी के पास तक पहुंचना पड़ेगा ।
अर्थ क्रमांक 2 में बताया गया है लोहा से सोना बनाने का जो योग होता है उसको भी रसायन कहा जाता है । अब यहां लोहा कौन है ? हम साधारण प्राणी लोहा हैं और अगर हमारे ऊपर पवन पुत्र हनुमान जी की कृपा हो जाए तो हम सोने में बदल जाएंगे । हनुमान जी के पास रामचंद जी का दिया हुआ लोहे को सोना बनाने वाला रसायन है ।
अब हम तीसरे बिंदू पर आते हैं । भारतीय चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद के अनुसार किसी भी रोग , ताप , व्याधि को नष्ट करने के लिए विभिन्न रसायनों का प्रयोग किया जाता है । इन रसायनों का पूरा स्टॉक हमारे महाबली हनुमान जी के पास राम जी की कृपा से है । अगर हनुमान जी की कृपा हमारे ऊपर रही तो हमें कभी भी रोग या व्याधि से परेशान नहीं होना पड़ेगा । हमारा शरीर और मन सदैव स्वस्थ रहेगा । मन के स्वस्थ रहने के कारण हमारे ऊपर पवन पुत्र की और श्री रामचंद्र जी की कृपा बढ़ती ही जाएगी ।
यहां पर यह ध्यान देने वाली बात है कि ब्याधि का अर्थ केवल शारीरिक बीमारी नहीं है। बरन मानसिक परेशानियां भी व्याधि के अंतर्गत आती है । यह संस्कृत का शब्द है और यह साहित्य में एक भाव भी है । किसी भी प्रकार के कष्ट पहुंचाने वाली वस्तु को भी व्याधि कहते हैं ।
आयुर्वेद में इन सभी प्रकार की व्याधियों को दूर करने के लिए रसायनों का प्रयोग होता है । इसके अलावा आयुर्वेद के अनुसार वह औषध जो जरा और व्याधि का नाश करनेवाली हो । वह दवा जिसके खाने से आदमी बुड़ढ़ा या बीमार न हो उसको भी हम रसायन कहेंगे । ऐसी औषधों से शरीर का बल, आँखों की ज्योति और वीर्य आदि बढ़ता है । इनके खाने का विधान युवावस्था के आरंभ और अंत में है । कुछ प्रसिद्ध रसायनों के नाम इस प्रकार है । - विड़ग रसायन, ब्राह्मी रसायन, हरीतकी रसायन, नागवला रसायन, आमलक रसायन आदि । प्रत्येक रसायन में कोई एक मुख्य ओषधि होता है ; और उसके साथ दूसरी अनेक ओषधियाँ मिली हुई होती हैं ।
परंतु राम रसायन एक ऐसी औषधि है जिनमें हर प्रकार की व्याधियों को दूर करने की क्षमता है । यह राम रसायन हमारे पवन पुत्र के पास है ।
इस चौपाई का अगला वाक्यांश है "सदा रहो रघुपति के दासा"। जिसका सीधा साधा अर्थ भी है की हनुमान जी सदैव रामचंद्र जी के सेवा मैं प्रस्तुत रहे । रघुनाथ जी के शरण में रहे । हनुमान जी ने सदैव मनसा वाचा कर्मणा श्री रामचंद्र की सेवा की और और इसी बात का श्री रामचंद्र जी से आशीर्वाद भी मांगा ।
बचपन में एक बार परमवीर हनुमान जी ने भगवान शिव के साथ अयोध्या के राजमहल में भगवान श्री राम को देखा था । बाद में सीता हरण के उपरांत जब श्री रामचंद्र जी ऋषिमुक पर्वत के पास पहुंचे तब वहां पर हनुमान जी सुग्रीव जी के आदेश से ब्राम्हण रुप में श्रीरामचंद्र जी के पास गये । हनुमान जी श्री रामचंद्र जी को पहचान नहीं पाए । बाद में श्री राम जी द्वारा बताने पर वे श्री रामचंद्र जी को पहचान गये। उन्होंने श्री रामचंद्र जी को अपना प्रभु बताते हुए कहा मैं मूर्ख वानर हूं । अज्ञानता बस आपको पहचान नहीं पाया परंतु आप तो तीन लोक के स्वामी हैं आप तो मुझे पहचान सकते थे।
मोर न्याउ मैं पूछा साईं। तुम्ह पूछहु कस नर की नाईं॥ (रामचरितमानस /किष्किंधा कांड/1/4)
अर्थ:-फिर धीरज धर कर स्तुति की। अपने नाथ को पहचान लेने से उनके हृदय में हर्ष हो रहा है। (फिर हनुमान्जी ने कहा-) हे स्वामी! मैंने जो पूछा वह मेरा पूछना तो न्याय था, (वर्षों के बाद आपको देखा, वह भी तपस्वी के वेष में । मेरी वानरी बुद्धि इससे मैं तो आपको पहचान न सका । अपनी परिस्थिति के अनुसार मैंने आपसे पूछा), परंतु आप मनुष्य की तरह कैसे पूछ रहे हैं?॥4॥
अर्थ:-हे नाथ! यद्यपि मुझ में बहुत से अवगुण हैं, तथापि सेवक स्वामी की विस्मृति में न पड़े । (आप उसे न भूल जाएँ)। हे नाथ! जीव आपकी माया से मोहित है। वह आप ही की कृपा से निस्तार पा सकता है॥1॥
अर्थ:-उस पर हे रघुवीर! मैं आपकी दुहाई (शपथ) करके कहता हूँ कि मैं भजन-साधन कुछ नहीं जानता। सेवक स्वामी के और पुत्र माता के भरोसे निश्चिंत रहता है। प्रभु को सेवक का पालन-पोषण करते ही बनता है (करना ही पड़ता है)॥
श्री रामचंद्र जी का अयोध्या में राजतिलक हो चुका था । रामराज्य अयोध्या में आ गया था । रामचंद्र जी ने तय किया पुराने साथियों को उनके घर जाने दिया जाए । पहली मुलाकात के बाद से ही सुग्रीव ,जामवंत ,हनुमान जी ,अंगद जी ,विभीषण जी ,सभी उनके साथ अब तक लगातार थे । अब आवश्यक हो गया था कि इन लोगों को घर जाने की अनुमति दी जाए । जिससे यह सभी लोग अपने परिवार जनों के साथ मिल सकें । विभीषण और सुग्रीव जी अपने-अपने राज्य में जाकर रामराज लाने का प्रयास करें । वहां की शासन व्यवस्था को ठीक करें । जाते समय श्री रामचंद्र जी सभी लोगों को कुछ ना कुछ उपहार दे रहे थे । जब सभी लोगों को श्री रामचंद्र जी ने विदा कर दिया उसके बाद हनुमान जी से पूछा कि उनको क्या उपहार दिया जाए । हनुमान जी ने कहा कि आपने सभी को कुछ ना कुछ पद दिया है । मुझे भी एक पद दे दीजिए । उसके उपरांत उन्होंने श्री रामचंद्र जी के पैर पकड़ लिए।
अर्थ:-हे सखागण! अब सब लोग घर जाओ, वहाँ दृढ़ नियम से मुझे भजते रहना। मुझे सदा सर्वव्यापक और सबका हित करने वाला जानकर अत्यंत प्रेम करना॥
अर्थ : - 'हे वीर श्रीराम! इस पृथ्वी पर जब तक रामकथा प्रचलित रहे, तब तक निस्संदेह मेरे प्राण इस शरीर में बसे रहें।'
अर्थात् : 'हे कपिश्रेष्ठ, ऐसा ही होगा, इसमें संदेह नहीं है। संसार में मेरी कथा जब तक प्रचलित रहेगी, तब तक तुम्हारी कीर्ति अमिट रहेगी और तुम्हारे शरीर में प्राण रहेंगे। जब तक ये लोक बने रहेंगे, तब तक मेरी कथाएं भी स्थिर रहेंगी।
एक दिन, विभीषण जी ने समुद्र की दी हुई एक उत्तम कोटि का अति सुंदर माला सीता मां को भेंट की । सीता मां ने माला ग्रहण करने के उपरांत श्री राम जी की तरफ देखा । रामजी ने कहा कि तुम यह माला उसको दो जिस पर तुम्हारी सबसे ज्यादा अनुकंपा है । सीता मैया ने हनुमान जी को मोतीयों की यह माला भेट दी । हनुमान जी ने माला को बड़े प्रेम से ग्रहण किया । उसके उपरांत हनुमान जी एक एक मोती को दांतोसे तोड़ कर कान के पास ले जाते और फिर फेंक देते । अपने भेंट की इस प्रकार बेइज्जती होते देख विभीषण जी काफी कुपित हो गए । उन्होंने हनुमान जी से पूछा कि आपने यह माला तोड़ कर क्यों फेंक दी । इस पर हनुमान जी ने कहा कि हे विभीषण जी मैं तो इस माला की मणियों में सीताराम नाम ढूंढ रहा हूं । परंतु वह नाम इनमें नहीं है । अतः मेरे लिए यह माला पत्थर का एक टुकड़ा है । इस पर किसी राजा ने कहा कि आप हर समय आप हर जगह सीताराम को ढूंढते हो । आप ने जो यह शरीर धारण किए हैं क्या उसमें भी सीता राम हैं और उनकी आवाज आती है । इतना सुनते ही हनुमान जी ने पहले अपना एक बाल तोड़ा और उसे उन्हीं राजा के कान में लगाया । बाल से सीताराम की आवाज आ रही थी । उसके बाद उन्होंने अपनी छाती चीर डाली । उनके ह्रदय में श्रीराम और सीता की छवि दिखाई पडी साथ ही वहां से भी सीताराम की आवाज आ रही थी ।
अपनी अनन्य भक्ति के कारण हनुमान जी के हृदय में श्रीराम और सीता के अलावा संसार की किसी भी वस्तु की अभिलाषा नहीं थी ।
इस प्रकार यह स्पष्ट है की हनुमान जी सदैव ही श्री राम जी के दास रहे और श्री रामचंद्र जी सदैव ही हनुमान जी के प्रभु रहे ।