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भगोरिया पर्व : भगोरिया प्रणय का नहीं, संस्कृति का पर्व★ प्रलय श्रीवास्तव

भगोरिया पर्व : भगोरिया प्रणय का नहीं, संस्कृति का पर्व
★ प्रलय श्रीवास्तव


भारतीय संस्कृति और परंपरा में आदिवासियों के रीति-रिवाज आज भी प्रचलित है । एक पर्व ऐसा भी है, जो मालवांचल के कुछ जिलों में प्रमुखता से मनाया जाता है । इसे भगोरिया पर्व के नाम से जाना जाता है । साल में एक बार होली के एक सप्ताह पूर्व से शुरू होकर होली जलने तक बड़े ही धूमधाम से इसे मनाया जाता है। भगोरिया धार, झाबुआ , अलीराजपुर व बड़वानी जिले के आदिवासियों के लिए खास महत्व रखता है। आदिवासी समाज मूलत : किसान है । ऐसी मान्यता है कि फसलों के खेतों से घर आने के बाद आदिवासी समाज भगोरिया उत्सव को हर्ष उल्लास के पर्व के रूप में मनाता है । इस पर्व में हर आयु वर्ग का व्यक्ति सज-धज कर शामिल होता है । भगोरिया आदिवासी संस्कृति की धरोहर है, इसलिए सभी वाद्य यंत्र के साथ मांदल की थाप पर हाट - बाजार में पहुँचते हैं और मौज - मस्ती के साथ इसे उत्सव के रूप में मनाते हैं । 




भगोरिया पर्व से जुड़ी कई किवदंतिया हैं। इसके बारे में आम जन को सही तथ्यों के साथ जानकारी नहीं दी जाती । भगोरिया आदिवासी समाज का प्रणय - पर्व है , जो पूर्णतः असत्य है । भगोरिया को प्रणय - पर्व न कहकर " आदिवासी समाज का सांस्कृतिक पर्व कहा जाए , तो ही इसकी सार्थकता सिद्ध होगी । आज भी आदिवासी ग्रामीण क्षेत्र में अपने वही पुराने रीति - रिवाज के साथ विवाह सम्पन्न करवाते हैं ।

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आदिवासी समाज आज भी सामाजिक मूल्यों का पालन करने एवं रीति - रिवाज के लिए जाना जाता है । भगोरिया पर्व को वेलेंटाइन डे या प्रणय - पर्व आदि से जोड़कर प्रस्तुत करना गलत है । समाज को चाहिए कि इसे इसके वास्तविक तथ्यों के साथ सही तरीके से प्रस्तुत करें । चूंकि आदिवासी समाज भोला - भाला है , इसलिए जैसा चाहे वैसा नहीं लिखा व दिखाया जाना चाहिए । 
भगोरिया पर्व के दौरान गाँवों में जाकर रिसर्च करने की आवश्यकता है । प्रदेश में  आदिवासी समाज ही ऐसा समाज है, जहाँ कई जिलों के लिंगानुपात में लड़कियों की संख्या ज्यादा है । भगोरिया पर्व में गाँव के मजरों-टोलों का अलग-अलग समूह होता है । एक ही परिवार के लोग बच्चे, युवा, बुजुर्ग और गाँव के गाँव इस पर्व में सम्मिलित होते हैं। पर्व के लिए नये कपड़े लेते हैं ।




इंदौर संभाग के सभी जिलों में भील - भीलाला, बारेला समाज है । इनमें आपस में व्यावहारिक अंतर हो सकता है, लेकिन रीति-रिवाज लगभग एक जैसे है । आदिवासी समाज की आज भी सामाजिक मूल्य, शिष्टाचार, सामूहिक जीवनयापन जैसी जो भी सभ्यता दिखाई देती है, वो टी.वी. सीरियल में दिखाई जाने वाली फूहड़ता से कई लाख गुना अच्छी है । आदिवासी समाज संयमित , भौतिक सुविधाओं से परे सभ्य समाज है। यही भारतीय संस्कृति की सांस्कृतिक धरोहर (परम्परा) भी है ।

● लेखक : श्री प्रलय श्रीवास्तव,            जनसम्पर्क विभाग के सागर कार्यालय    में उपसंचालक है

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