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जी हाँ, यथासमय मिले तो अवार्ड और उसे पानेवाले धन्य होते हैं


जी हाँ, यथासमय मिले तो अवार्ड और उसे पानेवाले धन्य होते हैं
सिने विमर्श/ विनोद नागर
       इस हफ्ते भले ही कोई समीक्षा योग्य फिल्म रिलीज़ नहीं हुई, लेकिन मंगलवार की सांध्य बेला बॉलीवुड से जुड़ी साल की सबसे बड़ी खुश खबरी लेकर आई. केन्द्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने शाम सात बजकर ग्यारह मिनट पर ज्योंही अपने ट्विटर अकाउंट पर अमिताभ बच्चन को सर्व सम्मति से वर्ष 2018 के दादा साहब फाल्के अवार्ड के लिये चुने जाने की सूचना दी तो देश भर में ख़ुशी की लहर दौड़ गई. देखते ही देखते बधाइयों का तांता लग गया. जी हाँ, यथासमय मिले तो अवार्ड और उसे पानेवाले दोनों धन्य होते हैं. हालाँकि अपनी फौरी प्रतिक्रिया में लताजी ने भी हौले से कह ही दिया कि अमिताभ बच्चन को यह पुरस्कार काफी पहले मिल जाना चाहिए था.   
अमिताभ 50 वे फिल्मी कलाकार,जिन्हें शिखर अलंकरण मिला
      बहरहाल भारतीय सिनेमा के विकास में असाधारण योगदान के लिये चिन्हित इस शिखर अलंकरण से विभूषित होने वाले अमिताभ पचासवें शख्स होंगे. प्रकारांतर से यह भारतीय सिनेमा को समृद्ध बनाने में विशिष्ट योगदान की खातिर दिया जाने वाला सबसे प्रतिष्ठित लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड ही है जिसे गरिमामय समारोह में भारत के राष्ट्रपति अपने करकमलों से प्रदान करते हैं. ज्ञातव्य है पुरस्कार के रूप में दस लाख रुपये और स्वर्ण कमल भेंट किया जाता है. हालाँकि लोकसभा चुनाव की वजह से इस वर्ष राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों की घोषणा काफी विलम्ब से हुई है. इस बीच मध्यप्रदेश सरकार ने भी किशोर कुमार के नाम पर वर्ष 2017 और 2018 में दिये जाने वाले राष्ट्रीय सम्मान की विलंबित घोषणा अब जाकर की है जो क्रमशः वयोवृद्ध अभिनेत्री वहीदा रहमान (81) और चेन्नई निवासी अहिन्दीभाषी फिल्म निर्देशक प्रियदर्शन को मिलेगा.  
       चयन में पारदर्शिता का ढिंढोरा पीटे जाने के बावजूद राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों पर जनसाधारण में  लोकप्रियता को दरकिनार कर कलात्मक बौद्धिकता हावी रहने के आरोप लगते रहे हैं. रेल की पटरियों की तरह सिनेमा को सामानांतर फिल्मों और बम्बइया फिल्मों में बाँटने की कोशिश भी हुईं. भारत की गरीबी और अभावग्रस्त जीवन को दर्शाती नई लहर की फिल्मों को विश्वस्तरीय सिनेमा मानने वाले बुद्धिजीवियों की बिरादरी, जो 'जंजीर' से लेकर 'अग्निपथ' के बीच आई अमिताभ की दर्जनों कामयाब मनोरंजक फिल्मों को चलताऊ फ़िल्में कहकर खारिज करती रहीं आज बौखलाई हुई है. दादा साहब फाल्के पुरस्कार के लिये चुने जाने की बेला में बिग बी और सदी के महानायक की आन, बान और शान में सोशल मीडिया पर पढ़े जा रहे कसीदों के सैलाब से वह भौंचक हैं.  
गुजिश्ता दौर में हिन्दी सिनेमा का नेतृत्व करनेवाले सक्षम और समर्थ लोगों की बिरादरी ने इसीलिये वर्षों तक राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों और राष्ट्रीय फिल्म समारोहों से दूरी बनाए रखी. फ़िल्मी दुनिया में फिल्म फेयर पुरस्कारों का बोलबाला यूँ ही कायम नहीं रहा. इधर टेलीविजन की नई अवतरित दुनिया में ग्लैमर का तड़का लगते ही फिल्म फेयर सरीखे अनेक फिल्म अवार्ड देने का सिलसिला शुरू हुआ. कमोबेश सभी अवार्ड प्रदाताओं पर पक्षपात के आरोप लगते रहे और विश्वसनीयता पर उंगलियाँ उठती रहीं. सूचना और प्रसारण मंत्रालय के नौकरशाहीभरे रवैये के चलते राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों के नामांकन और चयन की प्रक्रिया तो आज भी सरकारी कायदे कानून की तरह जटिल बनी हुई है, जिसका सरलीकरण किया जाना चाहिए.
समय पर मिले संम्मान तो उसकीअनुभूति अलग
यदि लोकतंत्र में लोक रूचि और जन भावनाओं की कद्र न हो तो तंत्र किस काम का. सालों तक मुख्य धारा के हिंदी सिनेमा अर्थात आम फार्मूला फिल्मों को हेय दृष्टि से देखे जाने के इस तथाकथित बुद्धिजीवी नज़रिए ने ही आज तक मोहम्मद रफ़ी, किशोर कुमार, मुकेश और महेंद्र कपूर जैसे महान पार्श्व गायकों; सचिन देव बर्मन, राहुलदेव बर्मन, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, कल्याणजी आनंदजी, शंकर जयकिशन, रोशन, रवि और रविन्द्र जैन सरीखे गुणी संगीतकारों; भरत व्यास, साहिर लुधियानवी, हसरत जयपुरी, शकील बदायूंनी, राजेंद्र कृष्ण, शैलेन्द्र, इंदीवर, अनजान और आनंद बक्षी जैसे दिलकश नगमा निगारों को दादा साहब फाल्के पुरस्कार से वंचित रखा है. बीते 50 सालों में गीत संगीत और पार्श्व गायन के क्षेत्र से पंकज मलिक (1972), रायचंद बोराल (1978), नौशाद (1981), लता मंगेशकर (1989), भूपेन हजारिका (1992), मजरूह सुल्तानपुरी (1993), कवि प्रदीप (1997), आशा भोंसले (2000), मन्ना डे (2007) और गुलज़ार (2013) ही इसके हकदार बने. 
देविका रानी और अशोक कुमार ने 1936 में बॉम्बे टॉकीज से अपने कैरियर की शुरुआत एक साथ की थी. लेकिन 1969 में स्थापित दादा साहब फाल्के पुरस्कार सबसे पहले भारतीय सिनेमा की प्रथम महिला के बतौर  देविका रानी को मिला जबकि अशोक कुमार का नंबर उन्नीस साल बाद 1988 में आया. समकालीन सितारों की तिकड़ी में उम्र के लिहाज़ से दिलीप कुमार देव आनंद से एक वर्ष बड़े और राज कपूर देव आनंद से एक बरस छोटे थे. अदाकारी और लोकप्रियता में कोई किसी से कम न था पर दादा साहब फाल्के पुरस्कार पहले राज कपूर को, फिर दिलीप कुमार को और आखीर में देव आनंद को मिला. अगर देश की स्वतंत्रता के रजत जयंती वर्ष (1972) में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के धनी इन तीनो महानुभावों को एक साथ फाल्के अवार्ड प्रदान कर दिया जाता तो यह हिंदी फिल्मो के इतिहास की विलक्षण घटना होती. यही दलील दिवंगत मोहम्मद रफ़ी, मुकेश और किशोर कुमार की त्रयी को याद करते हुए दी जा सकती है, जिन्हें मरणोपरांत भी आज तक इस पुरस्कार के लायक नहीं समझा गया.
बड़ा देश, बड़ा वॉलीवुड पर सम्मान पाने वाले कम
दुनिया में सर्वाधिक फिल्मे बनाने वाला देश सिनेमा की शताब्दी मना चुका है लेकिन अब भी रुपहले परदे की चमक बढ़ाने वाली ऐसी अनेक हस्तियों के नाम ऊँगलियों पर गिनाये जा सकते हैं जिन्हें यह पुरस्कार जीते जी प्रदान करने से सरकार या मंत्रालय विशेष का मान नहीं घटता बल्कि अवार्ड की विश्वसनीयता ही बढ़ती. इनमे सबसे पहला नाम है राजेश खन्ना का जिन्हें सुपर स्टार का दर्जा फिल्मों की बेशुमार कामयाबी और करोड़ों प्रशंसकों के दिलों में घर कर जाने पर मिला था, मीडिया के उतावलेपन से नहीं. मगर जिसकी हर अदा पर ज़माना रहा फ़िदा उस हरदिल अजीज सितारे को जीते जी प्राण से भी गया गुजरा समझा गया. देशभक्ति के जज्बे से सराबोर भारत यानि मनोज कुमार के उपकार का ख्याल भी भारत सरकार को प्राण के महाप्रयाण के बाद ही याद आया.
अब भी वक़्त है फिल्म पुरस्कारों के चयन प्रक्रिया की खामियों को दुरुस्त करने का. काश कि धर्मेन्द्र, जीतेन्द्र, शत्रुघ्न सिन्हा, डैनी डेन्जोंगपा, नसीरुद्दीन शाह, नाना पाटेकर, अनुपम खेर और अक्षय कुमार जैसे समर्थ कलाकारों, हेमा मालिनी, रेखा, माधुरी दीक्षित, जूही चावला, सुभाष घई, डेविड धवन, महेश भट्ट, संजय लीला भंसाली और राजकुमार हिरानी जैसे निर्देशकों, सोनू निगम, अलका याग्निक, उदित नारायण, कविता कृष्णमूर्ति जैसे पार्श्व गायकों तथा गीतकार समीर और संगीतकार एआर रहमान को कभी यह सर्वोच्च अलंकरण अस्पताल में या व्हील चेयर पर बैठकर लेने का अवसर न आये.  
                                   
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