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इंदौर में न राशन, न प्रशासन, है तो कोरोना का लांछन! @ हेमंत पाल

इंदौर में न राशन, न प्रशासन, है तो कोरोना का लांछन!

@ हेमंत पाल
 
इंदौर ।तीन बार देश में सबसे स्वच्छ शहर का खिताब जीतने वाला इंदौर आज कोरोना के लांछन से दागदार है! सफाई इस शहर का गर्व है! लोग किसी को भी सड़क पर थूकते देखते, तो उसे टोकने में देर नहीं करते! लेकिन, अचानक हालात बदले और स्वच्छ शहर धुंधला गया। जो देश में स्वच्छता के मामले में नंबर-वन था, वो कोरोना संक्रमित मरीजों की संख्या में भी अव्वल है। देश के 10 सबसे ज्यादा संक्रमित शहरों में इंदौर शामिल है। लोग इसे भी नियति मान लें, पर इस महामारी में प्रशासन की भूमिका पर भी उंगलियां उठ रही है। मनमाने आदेशों और राशन वितरण व्यवस्था ने गरीबों और मजदूर वर्ग की हालत ख़राब कर दी! कर्फ्यू और लॉक डाउन की सख्ती से कामकाज तो सारे बंद है! पर, ऐसे में गरीबों को खाने के जो लाले पड़ रहे हैं, उसका जिम्मेदार किसे माना जाए! क्योंकि, भूखे लोगों को रोटी का निवाला न दे पाने के दोष को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता!        
इंदौर को उत्सवप्रिय शहरों में गिना जाता है! यहाँ छोटे त्यौहार को भी बड़े उत्सव की तरह मनाया जाता है! त्यौहार न भी हो, तो लोग उत्सव के बहाने ढूंढ ही लेते हैं। यही कारण है कि कोरोना संक्रमण के कारण घोषित 'जनता कर्फ्यू' और बाद में 5 अप्रैल को रोशनी के आह्वान को भी लोगों ने उत्सव की तरह मनाया! 'जनता कर्फ्यू' के दिन तो लोग कोरोना के खिलाफ जंग जीतने की तरह सड़कों पर उतर आए! यही स्थिति 5 अप्रैल के दिन की भी रही, जब घर की बिजली बंद करके चौखट पर दीये लगाने की जगह लोगों ने पटाखों से आसमान गुंजा दिया! दरअसल, ये इस शहर का स्वभाव है! आकार में बड़ा होकर भी इंदौर में आज भी शहरी मानसिकता का अभाव दिखता है! जाने-माने पत्रकार स्व प्रभाष जोशी का कहना सही लगता है कि इंदौर एक बड़ा गाँव है। यहाँ आज भी लोग किसी का पता, उसके मकान नंबर से नहीं, किसी दुकान के आगे-पीछे वाली गलियों से बताते हैं।    

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कोरोना संक्रमण भी इस शहर के लोगों के लिए किसी उत्सव से कम नहीं रहा! इसे लोगों का स्वभाव समझा जाना चाहिए कि वे मुश्किल हालात में भी जीने के नए बहाने ढूंढ लेते हैं। वे अनुशासन में भी रहते हैं, पर थोड़ा अपने अंदाज में! फिलहाल शहर में कोरोना संक्रमितों की संख्या लगातार बढ़ती रही, लेकिन इस पर भी शहर के लोगों में घबराहट नहीं दिखी। कोरोना के कारण प्रशासनिक बंधन के जो हालात बने हैं, उसने इंदौर के लोगों को जरूर परेशान कर दिया, जो कि उनकी जीवन शैली का तरीका नहीं है। प्रशासन के मनमाने आदेशों ने उन्हें लॉक डाउन के उल्लंघन के लिए मजबूर कर दिया। पुलिस का रवैया भी डंडा फटकारने वाला ज्यादा नजर आ रहा है! स्थिति ये आ गई कि आईजी को अपने जवानों को समझाइश देना पड़ी कि हर किसी पर डंडा न चलाएं! लोग परेशान है, जो सड़क पर घूम रहे हैं, उनसे पूछताछ की जाए! यदि घर से निकलने का के कारण से संतुष्ट न हों तो भी उसे सामाजिक सजा दी जाए, न कि उस पर डंडा चलाया जाए! इस बात से इंकार नहीं कि ये महामारी से लोगों की जान बचाने की जंग है! हर व्यक्ति इसमें सहयोग भी दे रहा है, तो क्या कारण है कि प्रशासन अपनी ताकत दिखाने की कोशिश कर रहा है। सडकों पर लोगों को जबरन बेइज्जत किया जा रहा है! पत्रकारों को पीटा जा रहा है। आवश्यक सेवाओं में भी अड़चन डालने की ख़बरें हैं! वास्तव में ये व्यवस्था नहीं, प्रशासन की हठधर्मी ज्यादा लग रही है! शहर के कुछ इलाकों में लोगों ने लापरवाही की, पर क्या इसकी सजा 35 लाख लोगों को दी जाना सही है!   

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24 मार्च से घोषित लॉक डाउन के बाद से लोग ज्यादा परेशानी में आ गए! इसका कारण था, प्रशासनिक लापरवाही और लोगों को जरुरी सामान का न मिलना! एक दिन तो लोगों को दूध तक के लिए तरसना पड़ा, जबकि इसे रोके जाने का कोई कारण नहीं था! लॉक डाउन के पालन के लिए प्रशासन ने किराना और सब्जी की दुकानों को बंद करवा दिया, माना कि ये जरुरी भी था! अब प्रशासन ने इस सामग्री की सप्लाई खुद करने का बीड़ा उठाया, जिसमें वो पूरी तरह फेल हो गया। नगर निगम की कचरा गाड़ियों के जरिए 15 चुनिंदा सामान की लिस्ट लोगों तक पहुंचाई गई! लेकिन, जब दो दिन में ही 60 हज़ार लोगों ने जब प्रशासन को अपनी मांग भेज दी, तो सारी व्यवस्था गड़बड़ा गई! कई घरों में राशन नहीं बचा! लोग किफ़ायत से अपना काम चला रहे हैं! ऐसे में इस व्यवस्था में बहुत ज्यादा सुधार की गुंजाइश दिखाई नहीं दे रही! क्योंकि, जिस अधूरी योजना के साथ इसे बनाया गया था, वो दो दिन में ही दरक गई! ख़ास बात ये कि लोगों को दोयम दर्जे का सामान भेजा जा रहा है उसकी कीमत भी सामान्य से ज्यादा है! इसे क्या ये समझा जाए कि प्रशासन खुद कालाबाजारी करवा रहा है? शिकायत ये भी है कि प्रशासन ने ऐसे व्यापारियों को सप्लाई का काम सौंपा है, जो निर्धारित कीमत से डेढ़ गुना वसूल रहे है। बड़े शॉपिंग स्टोर से सिर्फ अधिकारियों, पुलिसवालों और रसूखदारों को सामान पहुंचाया जा रहा है।

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 प्रशासन की अव्यवस्था का सबसे ज्यादा शिकार गरीब लोग हो रहे हैं। ये हमेशा ही अभाव में जीते हैं, लॉक डाउन और कर्फ्यू ने इन्हें भूखे मरने पर मजबूर कर दिया है। कई जगह लोगों के सड़क पर निकल आने की वजह ये भी है कि उनके पास खाने को कुछ नहीं बचा, पर वे अपनी व्यथा किससे कहें! सरकार ने आदेश दिए कि गरीबों को 4 किलो गेहूं, 1 किलो चांवल तीन माह तक निशुल्क देंगे। लेकिन, इस बात का जवाब कौन देगा कि जब आटा चक्कियां ही बंद हैं तो गेंहू पिसेंगे कैसे? ये सिर्फ सरकारी कारगुजारी का एक नमूना भर है! कलेक्टर का कहना है कि मैंने भी सब्जी खाना छोड़ दिया, आप भी प्याज, आलू से काम चलाओ! इनकी बात मान भी ली जाए तो मसाले, तेल, नमक और मिर्च के बिना आलू और प्याज भी कैसे खाए जा सकते हैं! क्योंकि, किराना दुकान तो बंद करवा दी गई। मॉल और ऑनलाइन स्टोर वालों के नंबर प्रशासन ने जारी किए, पर ज्यादातर न तो फ़ोन उठाते हैं और न सामान की  ऑनलाइन बुकिंग हो रही है। सब्जी की बड़ी दुकान से भी तभी सप्लाई होगा जब इलाके के कम से कम 15 या 20 लोगों के आर्डर उन्हें मिलेंगे।आशय यह कि गरीबों की हालत तो ख़राब है ही, जो खरीदने की ताकत रखते हैं, उन्हें भी राशन नहीं मिल रहा! लोगों की शिकायत ये भी है कि उन्होंने जितने सामान की मांग की थी, उसमे आधा ही सामान मिला। शक्कर, चायपत्ती जैसी जरुरी सामग्री भी नहीं मिल रही! इसका कारण ये है कि डिमांड और सप्लाई में सामंजस्य नहीं बन पा रहा! प्रशासन कितनी भी सफाई दे, ऊँगली तो उसी की तरफ उठेगी! क्योंकि, ये उसकी जिम्मेदारी का अहम हिस्सा है!

★हेमन्त पाल,इंदौर के वरिष्ठ पत्रकार है

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